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ॐ मोक्ष से जोड़ने वाले : पंचविध योग : ९९
गोत्र और आयुकर्म का तो वन्ध नहीं होता, वेदनीय का भी वन्ध नाममात्र का है, केवल भवोच्छेद होने तक इनका उदयभाव शेष रहता है। इसे ही संस्कार शेप कहा जाता है। इस अवस्था में मति-श्रुतज्ञान के भेदरूप संस्कार का समूल नाश हो जाता है, अर्थात् वृत्तिरूप भावमन नहीं रहता, यों कहो कि केवलज्ञान या असम्प्रज्ञात समाधि की उपलब्धि के वाद वृत्तिरूप भावमन की आवश्यकता ही नहीं रहती, क्योंकि अवधि-मनःपर्यव-केवलज्ञान तो मन की सहायता के विना ही आत्मा को स्वयमेव वस्तुतत्त्व के यथार्थम्वरूप का ज्ञान होने लगता है।'
असंप्रज्ञात समाधि और वृत्तिसंक्षययोग में नाम का अन्तर है चौदहवें अयोगकेवली गुणस्थान में तो मन-वचन-काया के प्थूल-सूक्ष्म समस्त योगों-व्यापारों के निरुद्ध हो जाने से शैलेशीभाव से निर्वाणपद की प्राप्ति होती है। यही (द्वितीय) सर्ववृत्ति निरोधरूप असम्प्रज्ञात समाधि की प्राप्ति के अनन्तर पतंजलि-प्रोक्त स्वरूप-प्रतिष्टारूप कैवल्य-मोक्ष है। इस प्रकार वृत्तिसंक्षययोग की इस व्यापक व्याख्या में योग के समस्त प्रकारों को समन्वित किया गया है।
पंचविधयोग का आगमसम्मत पंचविध संवरयोग में अन्तर्भाव उक्त पंचविधयोग का आगमसम्मत संवर-पंचक में अन्तर्भाव हो जाता है। 'समवायांगसूत्र' में उल्लिखित सम्यक्त्व, विरति, अप्रमाद, अकषायत्व और अयोगित्व, इन पाँच संवर द्वारों का अध्यात्म से लेकर वृत्तिसंक्षय-पर्यन्त पंचविध योगों में ही अन्तर्भाव हो जाता है। यथा-सम्यक्त्व और विरति में अध्यात्म और भावना का, अप्रमत्तता और अकषायत्व में ध्यान और समता का तथा अयोगित्व में वृत्तिसंक्षय का समावेश हो जाता है। इसलिए मोक्षप्रापक पूर्वोक्त पंचविधयोग आगमसम्मत पंचविध संवर का ही विशिष्ट रूप है।
१. (क) द्विविधोऽयमध्यात्मभावना-ध्यान-समता-वृत्तिक्षयभेदेन पंचधोक्तम्य योगस्य पंचम
भेदेऽवतरति। शुद्धद्रव्यध्यानाभिप्रायेण व्याख्येयः। क्षपकश्रेणि-परिसमाप्ती केवलज्ञानलाभस्त्वसंप्रज्ञातः। भावमनसांसंज्ञाभावात् द्रव्यमनसां च तत्सद्भावात् केवली नोसंज्ञीत्युच्यते। संस्कारशेषस्त्वं चात्र भवोपग्राहि कर्मांशरूप-संस्कारापेक्षया
व्याख्येयम्। -पातंजल योगसूत्र १/१८ पर उपाध्याय यशोविजय जी की वृत्ति (ख) सर्ववृत्ति प्राप्त-समये संम्कारशेषो निरोधश्चित्तम्य समाधिरसम्प्रज्ञातः।।
-पा. यो. सू. व्यासभाष्य .. (ग) 'जैनागमों में अष्टांगयोग' से साभार भाव ग्रहण, पृ. २४-२५ २. (क) वही, पृ. २५-२६ (ख) पंच संवरदारा पण्णत्ता तं.-सम्मत्तं, विरई, अप्पमाया, अकसाया अजोगया।
-समवायांग, समवाय ५, सू. १०
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