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* ९८ .* कर्मविज्ञान : भाग ८ ॐ
दोनों में से पहली तो विकल्प और ज्ञानरूप मनोवृत्तियों और उनके कारणभूत ज्ञानावरणीय आदि (घाति) कर्मों के निरोध-क्षय से उत्पन्न होती है, जबकि दूसरी सम्पूर्ण औदारिकादि समस्त शारीरिक चेष्टारूप वृत्तियों और उनके कारणभूत
औदारिकादि समस्त शरीरों के क्षय से निष्पन्न होती है। पहली में केवलज्ञान और दूसरी में निर्वाणपद की प्राप्ति होती है।
इस प्रकार महर्षि पतंजलि के सम्प्रज्ञात और असम्प्रज्ञात का पूर्वोक्त अध्यात्मादि पंचविधयोग में अन्तर्भाव हो जाता है।' वृत्तिसंक्षययोग में ही सम्प्रज्ञात-असम्प्रज्ञात दोनों का अन्तर्भाव : क्यों और कैसे?
उपाध्याय यशोविजय जी ने तो वृत्तिसंक्षययोग में ही सम्प्रज्ञात और असम्प्रज्ञात दोनों ही योगों (समाधियों) का समावेश कर दिया है। उनके विचारानुसार आत्मा की जो स्थूल-सूक्ष्म चेष्टाएँ हैं, वे ही वृत्तियाँ हैं और उनका कारण है-कर्मसंयोग की योग्यता। अतः उन स्थूल-सूक्ष्म चेष्टाओं के कारणभूत कर्मसंयोग की योग्यता के क्रमशः ह्रास = नष्ट होने को वृत्तिसंक्षय कहते हैं। यह वृत्तिसंक्षय ग्रन्थि-भेद से प्रारम्भ होकर अयोगकेवली नामक १४ गुणस्थान में पूर्ण होता है। इसमें आठवें से बारह (क्षीणमोह) गुणस्थान तक में प्राप्त होने वाले शुक्लध्यान के प्रथम दो भेदों-पृथक्त्व-वितर्क-सविचार तथा एकत्व-वितर्क-अविचार में सम्प्रज्ञातयोग का अन्तर्भाव हो जाता है, क्योंकि सम्प्रज्ञातयोग तो निर्वितर्कविचारानन्दास्मिता-निर्भासरूप ही है। अतः वह पर्यायरहित शुद्ध द्रव्यविषयक शुक्लध्यान में = एकत्ववितर्काविचार में समाविष्ट हो जाता है तथा असम्प्रज्ञातयोग केवलज्ञान की प्राप्ति से लेकर निर्वाण-प्राप्ति तक में आ जाता है, यानी तेरहवें और चौदहवें गुणस्थान में असम्प्रज्ञातयोग का अन्तर्भाव हो जाता है। इन दोनों गुणस्थानों में ज्ञानावरणादि चारों घातिकर्मों का सर्वथा क्षय हो जाने से उत्पन्न केवलज्ञान की दशा में शेष चार अघातिकर्मों के संयोग की योग्यता रहती है। किन्तु केवलज्ञान हो जाने से कर्मसंयोग से उत्पन्न योग्य चेष्टारूप वृत्तियों का तो समूल नाश हो जाता है। यही सर्व (चेष्टा) वृत्तिनिरोधरूप असम्प्रज्ञातयोग है। उसको जो 'संस्कार शेष' कहा जाता है, उसका तात्पर्य यह है कि तेरहवें गुणस्थान में चार भवोपग्राही अघातिकर्मों के सम्बन्धमात्र शेष रह जाता है, यानी नये सिरे से नाम, १. (क) 'जैनागमों में अष्टांगयोग' से साभार भाव ग्रहण, पृ. २३ (ख) इह च द्विधाऽसम्प्रज्ञातसमाधिः-सयोगकेवलिकालभावीअयोगकेवलिकालभावी च।
तत्राद्यो मनोवृत्तीनां विकल्पज्ञानरूपाणां तद्बीजस्य ज्ञानावरणाधुदयरूपस्य निरोधादुत्पद्यते। द्वितीयस्तु सकलाशेषकायादिवृत्तीनां तद्बीजानामौदारिकादिशरीररूपोणामत्यन्तोच्छेदात् सम्पद्यते। -योगविंशिका व्याख्या, श्लो. ४३१
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