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ॐ मोक्ष से जोड़ने वाले : पंचविध योग ® ९७ ॐ
वृत्तिसंक्षय अथवा असम्प्रज्ञात ही मोक्ष के प्रति साक्षात् कारण :
क्यों और कैसे? .. 'पातंजल योगदर्शन' में योग का लक्षण है-“चित्तवृत्ति-निरोध।" इस लक्षण की अनेकान्त (समन्वय) दृष्टि से जब वृत्तिसंक्षययोग के साथ तुलना करते हैं तो फलितार्थ यह होता है कि चित्तवृत्ति निरोधरूप योग लक्षण से लक्षित होने वाला वास्तविक योग वृत्तिसंक्षय या असम्प्रज्ञात ही है, क्योंकि वृत्तिसंक्षय अथवा असम्प्रज्ञात ही मोक्ष के प्रति साक्षात् अव्यवहित कारण प्रमाणित होता है। इसी वृत्तिसंक्षययोग द्वारा ही आध्यात्मिक विकास की पराकाष्ठा प्राप्त होती है। परन्तु इस अवस्था तक पहुँचने के लिए साधक को पहले क्रमशः अन्य कई प्रकार के साधनों का अनुष्ठान करना पड़ता है। अतः पूर्वोक्त चतुर्विध योगरूप साधन भी मुख्य (वृत्तिसंक्षयरूप) योग के साधक होने से इन्हें भी योग नाम से प्ररूपित किया है।
अध्यात्म आदि चतुर्विध योग का सम्प्रज्ञात में और
वृत्तिसंक्षय का असम्प्रज्ञात में समावेश दूसरी बात यह है कि महर्षि पतंजलि के द्वारा प्ररूपित सम्प्रज्ञात और असम्प्रज्ञातयोग (समाधि) को आचार्य हरिभद्रसूरि ने पूर्वोक्त अध्यात्म आदि पंचविध योगों में अन्तर्भूत कर दिया है। अध्यात्म, भावना, ध्यान और समता; इन चार योगों को सम्प्रज्ञात नामक योग में और वृत्तिसंक्षय को असम्प्रज्ञातयोग में समाविष्ट कर दिया है। क्योंकि 'योगावतार द्वात्रिंशिका' के अनुसार-सम्प्रज्ञातयोग ध्यान और समतारूप है तथा असम्प्रज्ञातयोग वृत्तिसंक्षयरूप है।
सम्प्रज्ञात और असम्प्रज्ञात समाधि में अन्तर सम्प्रज्ञात समाधि में राजस और तामस वृत्तियों का तो सर्वथा निरोध हो जाता है, किन्तु सत्त्वप्रधान प्रज्ञाप्रकर्षरूप वृत्ति का उदय रहता है, जबकि असम्प्रज्ञात समाधि में समग्रवृत्तियों का क्षय होकर शुद्ध समाधि के आत्म-स्वरूप का अनुभव होता है।
जैनदृष्टि से दो प्रकार की असम्प्रज्ञात समाधि . 'योगविंशिका व्याख्या' में जैन-सिद्धान्त की दृष्टि से असम्प्रज्ञात समाधि दो प्रकार की बताई है-सयोगकेवली कालभावी और अयोगकेवली कालभावी। इन १. (क) 'जैनागमों में अष्टांगयोग' से भाव ग्रहण, पृ. २२-२३
(ख) योगश्चित्तवृत्तिनिरोधः। २. (क) 'जैनागमों में अष्टांगयोग' से भाव ग्रहण, पृ. २३
(ख) सम्प्रज्ञातोऽवतरति ध्यानभेदंऽन्न तत्त्वतः। -योगावतार द्वात्रिंशिका, श्लो. १५ . (ग) - असम्प्रज्ञातनामा तु सम्मतो वृत्तिसंक्षयः।
-वही, श्लो. २१
-पा. यो. १/१
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