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* मोक्ष से जोड़ने वाले : पंचविध योग * ९५ *
समतायोग ही मुक्ति का अन्यतम उपाय 'अध्यात्मसार' में कहा है-“समता ही मुक्ति का एकमात्र उपाय है, अन्य क्रियाएँ भारभूत हैं।” “एक समता को छोड़कर जो भी कष्टकारी क्रिया की जाती है, वह ऊसर भूमि में बोये हुए बीज के समान अभीष्ट फल देने वाली नहीं होती।' 'ज्ञानसार' में कहा गया है-“जो समताकुण्ड में स्नान कर पापमल को धोकर साफ कर लेता है, वह पुनः मलिन नहीं होता, वही आत्मा यथार्थ में पवित्र होता है।"
समतायोगी को प्राप्त तीन महत्त्वपूर्ण उपलब्धियाँ समतायोग में निष्णात साधक को अनेक प्रकार की लब्धियाँ और सिद्धियाँ प्राप्त हो जाती हैं। परन्तु समता का साधक योगी इन लब्धियों और सिद्धियों के प्रलोभन में नहीं फँसता। किन्तु वह इनकी वास्तविकता को समझकर तथा इन्हें वीतरागता और केवलज्ञान की प्राप्ति में विघ्नरूप मानकर इनका उपयोग नहीं करता। 'योगबिन्दु' के अनुसार-“समता में दृढ़ निष्ठा हो जाने पर समत्वयोगी की वृत्ति में एक ऐसा वैशिष्ट्य आ जाता है कि वह प्राप्त ऋद्धियों (लब्धियों-सिद्धियों) का प्रयोग नहीं करता। फलतः उसके सूक्ष्म कर्मों यानी यथाख्यात चारित्र और केवलज्ञानोपयोग को आवृत करने वाले ज्ञानावरण, दर्शनावरण और मोहनीय कर्मों का क्षय तथा अपेक्षातन्तु का विच्छेद हो जाता है।" अपेक्षातन्तु के विच्छेद का तात्पर्य है-उसे संसार के सुख या किसी पदार्थ को प्राप्त करने की स्पृहा, आकांक्षा “या लालसा नहीं रहती। इस प्रकार समतायोग के तीन विशिष्ट फल हैं(१) लब्धियों में अप्रवृत्ति, (२) ज्ञान, दर्शन और चारित्र के प्रतिबन्धक ज्ञानावरणीय, दर्शनावरणीय और मोहनीय कर्मों का क्षय, एवं (३) अपेक्षातन्तु का विच्छेद। इन तीनों के आस्वादन उसे मोक्षरूप अमृतफल की प्राप्ति होती है। समतायोगी के लिए मोक्ष की सिद्धि दूर नहीं। . उस समतामूर्ति के समभाव के प्रभाव से क्रूर प्राणी भी अपने जन्मजात वैर को भूल जाते हैं। उनके समवसरण में स्थित सिंह भी वैर को विस्मृत कर समतायोगी के प्रभाववश वीतराग वाणी का पान करते हैं। हरिणी सिंह-शिशु को अपने पुत्र की बुद्धि से स्पर्श और प्यार करती है। गाय व्याघ्र के बच्चों से स्नेह
१. (क) उपायः समतैवेका मुक्तेरन्यः क्रियाभरः॥२७॥
संत्यज्य समतामेकां स्याद्यत्कष्टमनुष्ठितम्।
तीप्सितकरं नैव बीजमुग्नमिवोपरे ॥२६॥ (ख) यः स्नात्वा समताकुण्डे हित्वा कश्मलजं मलम्। . पुनर्न याति मालिन्यं, सोऽन्तरात्मा परं शुचिः॥
-अध्यात्मसार ९/२७, २६
-ज्ञानसार १४/५
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