________________
ॐ ९४ ॐ कर्मविज्ञान : भाग ८ ॐ
(विशिष्ट) मन, वचन, काया के व्यापार का नाम समतायोग है। समत्वयुक्त विवेकज्ञान के प्रादुर्भूत होने से आत्मा में विचारवैषम्य का लय और समभाव का परिणमन होने लगता है। इसी सत-परिणाम द्वारा किये जाने वाले तत्त्व-चिन्तन को ही समतायोग कहते हैं।' समता के बिना ध्यान परिपूर्ण नहीं होता
समता आत्मा का निजी गुण है, इसमें सम्यग्ज्ञान-दर्शन-चारित्र तीनों का समावेश हो जाता है। इसके विकास से आत्मा वहुत उच्च भूमिका पर. आरूढ़ हो जाती है। यह भी समझ लेना चाहिए कि ध्यान और समता, दोनों सापेक्ष हैं, अन्योन्याश्रित हैं। ध्यान के विना समता की और समता के विना ध्यान की. परिपूर्णता नहीं होती। क्योंकि ध्यानयोग से प्राप्त चित्त की एकाग्रता, मन की स्वस्थता और बुद्धि की स्थिरता समतायोग की साधना पर ही अधिक निर्भर है। . आगमों में समतायोगी की बहुत ही प्रशंसा की गई है। ‘दशवैकालिकसूत्र' में कहा गया है-“आत्मा को (आत्मा के शुद्ध स्वरूप को) आत्मा से विशेष रूप से जानकर, जो राग और द्वेष के प्रसंगों में सम रहता है, वह जगत्-पूज्य है।" क्योंकि वह राग-द्वेष की विषम-भूमि को लाँघकर वीतरागता की सम-भूमि पर आरूढ़ होने का सौभाग्य प्राप्त कर लेता है। समतायोग से अवलम्बन से अर्द्ध-क्षण में पूर्ववद्ध कर्मों का नाश
समतायोग का माहात्म्य बताते हुए ‘योगशास्त्र' में कहा गया है-“साम्यभाव (समत्वयोग) का अवलम्बन करके अन्तर्मुहूर्त में मनुष्य जिन (पूर्ववद्धं कठोर) कर्मों को अर्द्ध-क्षण (अन्तर्मुहूर्त) में नष्ट (क्षय) कर डालता है, वे ही कर्म तीव्र तपस्या (बाह्यतप) से करोड़ों जन्मों में भी नष्ट नहीं हो सकते।'' "मामायिक (समतायोग) रूपी सूर्य के द्वारा राग-द्वेष-मोह आदिरूप अन्धकार नष्ट कर देने पर समतायोगी अपनी आत्मा में परमात्मा का स्वरूप देखने लगते हैं।''३
१. 'जैनागमों में अष्टांगयोग' से भाव ग्रहण. पृ. २0 २. (क) विदाणिआ अप्पगमप्पएणं. जो गगदामेहिं ममो म पुज्जी।
-दशवेकालिक, अ. ९. गा. ११ (ख) 'जैनागमों में अष्टांगयोग मे भाव ग्रहण. पृ. २) ३. प्रणिन्नि क्षणार्धेन माम्यमालम्ब्य कर्म यत्।
यन्न हन्यानगम्तीव्रतपमा जन्मकोटिभिः ।।१।। गगादि-ध्वान्त-विध्वंसे कृते मामायिकांशुना। म्वम्मिन स्वरूपं पश्यन्ति योगिनः परमात्मनः॥५३॥ -योगशास्त्र प्र. ४. श्लो. ५१, ५३
Jain Education International
For Personal & Private Use Only
www.jainelibrary.org