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९६ कर्मविज्ञान : भाग ८
करती है। बिल्ली हंस- शिशु को स्नेहदृष्टि से देखती है । मोरनी सर्प के बच्चे से प्यार करती है तथा प्राणी भी परस्पर वैरभाव को भूल जाते हैं । '
साधकों को समतायोग में प्रवृत्ति और प्रचार की प्रेरणा
'सूत्रकृतांगसूत्र' में साधकों के लिए निर्देश है- " वह जगत् के समस्त जीवों को समत्वदृष्टि से देखे, राग-द्वेष के वश होकर किसी का प्रिय या अप्रिय न करे।" इसी शास्त्र में कहा गया–‘“सम्यक् प्रकार से प्रज्ञा प्राप्त साधु कषायों पर विजयी बने और समताधर्म का उपदेश दे।" इन सूत्रों पर से समताधर्म के आचरण का महत्त्व समझा जा सकता है । २
( ५ ) वृत्तिसंक्षययोग
आध्यात्मिक उत्क्रान्ति की पराकाष्ठा वृत्तिसंक्षययोग में
पूर्वोक्त अध्यात्म, भावना, ध्यान और समता, इन चार योगों की साधना द्वारा उत्तरोत्तर आध्यात्मिक क्रान्ति अधिकाधिक होती जाती है, परन्तु उसकी पराकाष्ठा तो इस वृत्तिसंक्षय नामक पंचम योग में ही उपलब्ध होती है। क्योंकि आचार्य हरिभद्रसूरि ने मोक्ष प्रापक (मोक्ष प्राप्त कराने वाले ) या मोक्ष-संयोजक (मोक्ष से सम्यक् जोड़ने वाले ) धर्म (संवर- निर्जरारूप कर्मक्षयकारक) व्यापार को योग का लक्षण मानकर उसके पूर्वोक्त पाँच भेद बताए हैं और अध्यात्मयोगादि चारों की पूर्वसेवा से उसका प्रारम्भ करके 'वृत्तिसंक्षय' में उसका पर्यवसान किया है। निष्कर्ष यह है कि पूर्वसेवा से अध्यात्म, अध्यात्म से भावना, भावना से ध्यान, ध्यान से समता एवं समता से वृत्तिसंक्षयं और वृत्तिसंक्षय से मोक्ष की प्राप्ति बताई है। अतएव वृत्तिसंक्षय ही मुख्य योग है और पूर्वसेवा से समता- पर्यन्त के सभी धर्म-व्यापार साक्षात् अथवा परम्परा से योग के उपायभूत होने से योग कहलाते हैं । ३
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(क) 'जैनागमों में अष्टांगयोग' से भाव ग्रहण, पृ. २० (ख) ऋद्ध्यप्रवर्तनं चैव सूक्ष्मकर्मक्षयं तथा ।
अपेक्षातन्तुविच्छेदः फलमस्याः प्रचक्षते ॥
२. (क) सब्वं जगं तु समयाणुपेही, पियमपियं करसइ णो करेज्जा ।
- सूत्रकृतांग, श्रु. १, अ. १०, गा. ७
(ख) पण्णसंपत्ते सया जाए, समयाधम्ममुदाहरे मुणी । - वही, श्रु. १, अ. २, उ. २, गा. ६
३. (क) मुक्खेण जोयणाओ जोगो, सव्वो वि धम्म-वातारो
- हरिभद्रसूरि
(ख) 'जैनागमों में अष्टांगयोग' से साभार भाव ग्रहण, पृ. २२
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- योगबिन्दु, श्लो. ३६५
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