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* मोक्ष से जोड़ने वाले : पंचविध योग
जोड़ने के कारण इसे क्रमशः उत्तरोत्तर श्रेष्ठ योग कहा है। " "
'पातंजल योगदर्शन'
में
उक्त संप्रज्ञात और असंप्रज्ञात योग (समाधि) को उन्होंने इन पंचविध योगों में समाविष्ट कर दिया है।
(१) अध्यात्मयोग
अध्यात्म शब्द का अर्थ और फलितार्थ
अध्यात्म शब्द का व्याकरणशास्त्र की दृष्टि से अर्थ होता है - " जो भी प्रवृत्ति या क्रिया अथवा अनुष्ठान हो, वह आत्मा को लक्ष्य में रखकर (अधिकृत करके) किया जाए, उसे अध्यात्म कहते हैं।”३ 'अध्यात्मसार' में अध्यात्म का स्वरूप बताते हुए उपाध्याय यशोविजय जी कहते हैं- “जिसके मोह (मिथ्यात्व) का सामर्थ्य नष्ट हो चुका है, उनके द्वारा आत्मा को लक्ष्य करके जो भी शुद्ध क्रिया की जाती है, उसे जिनेश्वरों ने अध्यात्म कहा है ।" इसका फलितार्थ यह है कि मोहनीय कर्म की प्रबलता से प्राप्त मिथ्यात्व की शक्ति जिसकी नष्ट हो चुकी है, जिन्हें सम्यक्त्व की प्राप्ति हो चुकी है। उसी सम्यक्त्व के प्रकाश में (सम्यक्त्व से लेकर १४वें गुणस्थान तक) जिसकी भोगाकांक्षा, स्पृहा, कषाय- नोकषाय, आसक्ति, स्पृहा आदि मोहजनित निरंकुश प्रवृत्ति शान्त, मन्द या क्षीण हो चुकी है, ऐसे व्यक्तियों द्वारा आत्मा के सहज स्वरूप एवं आत्म-शुद्धि ( संवर - निर्जरा) को लक्ष्य में रखकर मैत्री आदि भावनापूर्वक जो भी व्रत, नियमादि, तप, जप, ध्यान, दान, शील आदि किया जाता है, उस सम्यग्ज्ञान-सत्क्रियारूप शुद्ध परिणाम को अध्यात्म कहा है।
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चतुर्थ गुणस्थान से चतुर्दशम् गुणस्थान तक. उत्तरोत्तर शुद्ध अध्यात्म माना गया है.
‘अध्यात्मसार' के अनुसार–‘“निश्चयदृष्टि से तो अध्यात्म पंचम गुणस्थान से ही माना जाता है, क्योंकि पंचम गुणस्थान से ही मुमुक्षु शुद्ध ज्ञान तथा शुद्ध क्रिया (प्रत्याख्यान, त्याग, व्रत, नियमादि) से युक्त होता है, किन्तु व्यवहारनय की दृष्टि से. (देव - गुरु की सेवा, धर्मश्रवणेच्छा, दान, विनय, वैयावृत्यादि क्रिया होती हैं,
इस
१. अध्यात्मं भावना ध्यानं समता वृत्ति-संक्षयः । मोक्षेण योजनाद्योगः, एष श्रेष्ठो यथोत्तरम्॥
२. ( मोक्षप्रापक) समिति - गुप्तिसाधारण धर्मव्यापारत्वमेव योगत्वम् ।
३. आत्मानमधिकृत्य यद् वर्तते तदध्यात्मकम् ।
४ (क) गतमोहाधिकाराणामात्मानमधिकृत्य या ।
प्रवर्तते क्रिया शुद्धा तदाध्यात्मं जगुर्जिनाः ॥
(ख) 'अध्यात्मसार विवेचन' (संपादक - पं. मुनि श्री नेमिचन्द जी) से भाव ग्रहण
- योगबिन्दु, श्लो. ३१
- पातंजल योगदर्शन, सू. १/२ की वृत्ति, उपाध्याय यशोविजय जी
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- अध्यात्मसार, प्र. १, अ.२/२
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