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ॐ ८२ ® कर्मविज्ञान : भाग ८ *
(२) संवेगभावना-मोक्ष के प्रति रुचि जगाने में, उत्साह और साहस में वृद्धि करने और अध्यात्म का सम्यग्ज्ञान देने में संवेगभावना उपयोगी है। इनके अन्तर्गत अनित्य, अशरण आदि १२ भावनाएँ (अनुप्रेक्षाएँ) हैं। संवेगभावना के अन्तर्गत जो १२ भावनाएँ हैं, उनमें से किसी भी एक भावना के प्रयोग से आत्मा योग से अयोग रूप परम तत्त्व को प्राप्त कर लेता है।
(३) निर्वेदभावना-निर्वेद का अर्थ होता है-संसार के प्रति विरक्ति = अरुचि। चारित्रधर्म को स्वीकार करने वाला ही निर्वेदभावना का अधिकारी होता है। इसमें सावद्ययोग का त्याग करना, ईर्या आदि पाँच समिति तथा मनो-वाक्-कायगुप्ति का . पालन करना, परीषह-उपसर्ग आदि को समभाव से सहना इत्यादि भावों के दृढ़
और हृदयंगम होने से इसे निर्वेदभावना कहा जाता है। अहिंसा आदि पाँच महाव्रतों में से प्रत्येक महाव्रत की पाँच-पाँच भावनाएँ होने से निर्वेदभावना कुल २५ भावनाओं से युक्त होती है। इन पाँच महाव्रतों की पच्चीस भावनाओं का भावपूर्ण, हृदयस्पर्शी तथा युक्तियुक्त एवं विस्तृत वर्णन आचारांगसूत्र और प्रश्नव्याकरणसूत्र में तथा केवल नामोल्लेख समवायांगसूत्र में मिलता है। इन भावनाओं के मनन और निदिध्यासन से व्रतों में स्थिरता और निर्दोष पालन करने की जागृति आती है।
अतः सम, संवेग और निर्वेद, इन तीनों भावों से भावित होने से आत्मा में ज्ञान, दर्शन और चारित्र तथा तप की भावना मुखरित होती हैं और वे मोक्ष के निकट ले जाने वाले भावनायोग को चरितार्थ करती हैं। अतः यह सिद्ध हुआ कि भावनायोग से संसार के प्रति अरुचि और उदासीनता तथा मोक्ष के प्रति रुचि, तत्परता और साधना में तीव्रता होती है। भावना, अनुप्रेक्षा और चिन्ता, ये तीनों ध्यानावस्था की प्राप्ति में सहायिका
(१) भावना-चित्त को स्थिर करने की प्रथम साधना है। भावना ध्यानाभ्यास की पूर्व भूमिका है। ध्यान का अभ्यास प्रारम्भ करने के काल में चंचल चित्त को स्थिर करने के लिए भावना की अपेक्षा होती है। अन्तर्मुहूर्त के पश्चात् एकाग्रता की स्थिति को लाने में भावना सहायिका होती है।
१. (क) “योग-प्रयोग-अयोग' से भाव ग्रहण, पृ. १९७-१९८, २०२-२०३ (ख) तवेण सत्तेण सुत्तेण एगत्तेण वलेण य।
तुलणा पंचहा वुत्ता जिणकप्पं पडिवज्जओ॥ -बृहत्कल्पभाष्य (आचार्य संघदासगणी) (ग) धिइ-बल-पुरिसस्सओ, हवंति सव्वावि भावणा एता। तं तु न विज्जइ सज्जं, जं धिइमंतो न साहेइ॥
-वही, गा. १३५ २. (क) योगशास्त्र, प्र. १, श्लो. १८ ।
(ख) आदिपुराण, स. २१, श्लो. ९८ (ग) प्रश्नव्याकरणसूत्र, संवरद्वार (घ) देखें-भावना के सम्बन्ध में अधिक विवेचन 'भावनायोग' ग्रन्थ में
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