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* मोक्ष से जोड़ने वाले : पंचविध योग * ९१ ॐ
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समता में आगे बढ़ जाता है। अर्थात् वह भी आध्यात्मिकता के शिखर पर समतायोग के सोपानों से होकर पहुँच सकता है। इसीलिए 'आवश्यकनियुक्ति' में कहा गया है-“सामायिक व्रत का पालन-आराधन करने से श्रावक भी साधु (श्रमण) की तरह हो जाता है। इसलिए श्रावक का भी कर्तव्य है कि वह अधिकाधिक सामायिक करे और समतारस का आस्वादन करे।"
सामायिक का लाभ और महत्त्व चंचल मन पर नियंत्रण करने के लिए घर में और बाहर भी तथा परिवार, समाज और राष्ट्र में कषायों को उपशान्त करने के लिए समत्वयोग की साधना करने से अशुभ कर्मों का क्षय होता है। आचार्यों ने समतायोगरूपी सामायिक का महत्त्व इतना बताया है कि देव भी सामायिक व्रत स्वीकार करने की तथा समभावरूप सामायिक के आचरण की तीव्र अभिलाषा रखते हैं कि अगर सामायिक का आचरण हो सके तो हमारा देव-जन्म सफल हो जाए। परन्तु सामायिक (समतायोग) की वास्तविक साधना का अधिकार सम्यग्दर्शनपूर्वक व्रतधारी देशविरत श्रावक को अथवा सर्वविरत साधुवर्ग को है।'
समतायोग की साधना से पूर्व उसका सम्यग्ज्ञान एवं
___उसके प्रति श्रद्धा आवश्यक समतायोग की आराधना-साधना के लिए समता का अर्थ, लक्षण तथा स्वरूप समझना आवश्यक है, क्योंकि समता का सम्यग्ज्ञान और उस पर पूर्ण श्रद्धा होने पर ही समतायोग का आचरण हो सकता है। यद्यपि हमने समतायोग पर विविध पहलुओं से 'समतायोग का मार्ग : मोक्ष की मंजिल' तथा 'समतायोग का पौधा : मोक्षरूपी फल' शीर्षक निबन्धों में प्रकाश डाला है; फिर भी समतायोग के सन्दर्भ में कतिपय पहलुओं पर प्रकाश डालना अपेक्षित है।
समता का लक्षण और समता के एकार्थक शब्द 'प्रवचनसार' में कहा गया है-चारित्र ही धर्म है और धर्म (कर्मक्षयकर्ता) ही साम्य है। वह साम्य मोह और क्षोभ से रहित है। अर्थात् राग-द्वेष-कषाय से एवं १. (क) जे केवि गया मोखं, जे वि य गच्छंति, जे गमिस्संति।
ते सव्वे सामाइयप्पभावेण मुणेयव्वं॥ किं तवेण तिव्वेण, किं च जपेण, किं चरित्तेण।
समयाइविण मुक्खो, न हुओ, कहा वि न हु होइ॥ (ख) सामाइयम्मि उ कए, समणो इव सावओ हवइ जम्हा। एएण कारणेण बहुसो सामाइयं कुज्जा॥
-आवश्यकनियुक्ति
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