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@ मोक्ष से जोड़ने वाले : पंचविध योग @ ८३ ॐ
• कारण यह है कि अभ्यासकाल में ध्याता को सुख-दुःख का संवेदन या अनुभव होता है, वह सुख और दुःख को भोगता है, परन्तु शुभ भावना के कारण फिर वह ज्ञाता-द्रष्टा वनकर घटना को जानता-देखता है, भोगता नहीं, संवेदन नहीं करता। केवल जानना और देखना ही जव चित्त में होता है, तव भावना शुद्ध हो जाती है और ध्याता का ध्यान सधता जाता है।
(२) अनुप्रेक्षा-चित्त को ग्थिर करने की द्वितीय साधना है। जो भी तत्त्वज्ञान प्राप्त किया गया है, उसका स्मरण, मनन, चिन्तन धागवाहिक चलते रहना अनुप्रेक्षा है। ध्याता' अन्तर्मुहूर्त के पश्चात् चलित हो जाता है। बल्कि नौसिखिया ध्यानसाधक अन्तर्मुहूर्त तक भी ग्थिर नहीं रह पाता। ऐसी स्थिति में निर्धारित तत्त्व के चिन्तन में स्थिरता व एकाग्रता लाने में अनुप्रेक्षाएँ सहायक होती हैं, जोकि १२ प्रकार की हैं। अनुप्रेक्षा के स्वरूप, प्रकार और विभिन्न अनुप्रेक्षाओं के प्रयोग के विषय में हम पूर्व निवन्धों में विस्तृत रूप से प्रकाश डाल चुके हैं।
(३) चिन्ता या चिन्तन-चित्त की एकाग्रता और स्थिरता में चिन्ता या चिन्तन वाधक भी है, साधक भी। क्योंकि भावना और अनुप्रेक्षा के अतिरिक्त मन व्यग्र अवस्था में चंचल रहता है। चित्त की चंचलता चिन्ता से पैदा होती है और चिन्ता वाहरी वातावरण तथा वृत्ति-प्रवृत्तियों से प्रभावित होती है। मनुष्य की वृत्तियाँ और प्रवृत्तियाँ स्थायी नहीं होती। एक ही वृत्ति या प्रवृत्ति के समाप्त होने पर उसकी स्मृति और कल्पना अमुक समय तक चलती रहती है। ये ही चिन्ता की प्रवल हेतु हैं। पर ये भी अस्थायी हैं क्योंकि ये भी प्रतिक्षण लहरों की भाँति नये-नये रूप में . उभरती रहती हैं। जब ध्याता वहिर्मुखी से अन्तर्मुखी वनकर उन विभिन्न चिन्ताओं का निरोध करके एक ही निर्धारित तत्त्व-चिन्ता में एकाग्र हो जाता है तभी ध्यान-साधना है। वस्तुतः ध्यान की पूर्वावस्था में भावना की और ध्यान टूटने के पश्चात् की अवस्था में अनुप्रेक्षा की जरूरत होती है, इन दोनों से ध्यान में स्थिरता आने लगती है, किन्तु पुगनी स्मृतियाँ और कल्पनाएँ चिन्ता के रूप में फिर चित्त को चंचल और व्यग्र वनाने लगती हैं, तव व्यग्र चिन्ता के बदले तत्त्व में एकाग्र चिन्ता चित्त को स्थिर और एकाग्र वनाने में सहायक होती है। इस प्रकार इन तीनों के अभ्यासक्रम से ध्याता को ध्यानावस्था की प्राप्ति होती है।
१. अंतोमुत्तमेतं चिंतावत्थाणमेगवत्थुम्मि। ___ छउमत्थाणं झाणं जोगनिरोहो जिणाणं तु॥ -ध्यानशतक (जिनभद्रगणि क्षमाश्रमण) २. (क) देखें-अनुप्रेक्षाओं के सम्बन्ध में विस्तृत विवेचन के लिए कर्मविज्ञान, भा. ६, निबन्ध
११-१४ (ख) योग-प्रयोग-अयोग' से भाव ग्रहण, पृ. २०८-२०९ (ग) 'ध्यान विचार' (नमस्कार-स्वाध्याय, प्राकृत विभाग) से भाव ग्रहण, पृ. २३६
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