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मोक्ष से जोड़ने वाले : पंचविध योग ॐ ८१ ॐ
भावनायोग के मुख्य विषय और उनका सुपरिणाम अध्यात्मयोगी के लिए ज्ञान, दर्शन, चारित्र, तप, संयम और वैगग्य ये छह मुख्य विषय भावना के हैं। इनकी भावना निरन्तर करने से वैभाविक संग्कारों का विलय, क्षयोपशम या उपशम, अध्यात्म-तत्त्व की अन्तःकरण में स्थिरता और आत्म-गुणों का प्रकटीकरण एवं विकास होता है।
भावनायोग की उपलब्धि के मुख्य तीन पहलू भावनायोग की उपलब्धि के मुख्य तीन पहलू हैं-सम, संवेग और निर्वेद। संयोग-वियोग, भवन-वन, दुःख-सुख, शत्रु-मित्र, जीवन-मरण, निन्दा-प्रशंसा आदि द्वन्द्वोंसम है, उसकी उपलब्धि, मैत्री आदि चार भावनाओं के अनुशीलन से, मनन-चिन्तन से सम्यग्दृष्टि प्राप्त होती है। संवेग से सर्वकर्ममुक्तिरूप मोक्ष की तीव्र अभिलाषा जाग्रत होती है, तदनुसार उससे सम्बन्धित सम्यग्ज्ञान प्राप्त होता है, इसके चिन्तन का आधार बनती हैं, अनित्य आदि १२ अनुप्रेक्षाएँ = भावनाएँ और निर्वेद (पर-पदार्थों से विरक्ति) से प्राप्त होता है-सम्यक्चारित्र, जिसके चिन्तन का विषय है-पाँच महाव्रतों की २५ भावनाएँ। दूसरे शब्दों में कहें तो भावना का जन्म समभाव से, विकास संवेग से और स्थायित्व निर्वेद से होता है। निश्चयदृष्टि से भावनायोग से पहले वस्तु के प्रति समभाव, फिर स्वरूपबोध और अन्त में स्वरूपोपलब्धि होती है। भावनायोग की सिद्धि के लिए तीन भावनाएँ आवश्यक : क्यों और कैसे ?
(१) समभावना-पहली भावना को समभावना संज्ञा देकर मैत्री, प्रमोद, कारुण्य और माध्यस्थ्य भावनाओं की साधना चलती है। इन चार भावनाओं का विशिष्ट सम्बन्ध प्राणिमात्र में शुद्ध आत्म-दर्शन को पुष्ट करना माना जाए तो मैत्री आदि भावनाएँ दर्शन-विशुद्धि की भावनाएँ हैं, जो समभावना की प्रतीक हैं। साधना की दृष्टि से इसी समभावना के दो भेद किये गये हैं-योगभावना और - जिनकल्पभावना। योगभावना में मैत्री आदि चार भावनाएँ हैं तथा जिनकल्पभावना में 'बृहत्कल्पभाष्य' के अनुसार तप, सत्त्व, सूत्र, एकत्व तथा बल इत्यादि भावनाएँ हैं, जिनसे जिनकल्पी साधक को भावित होना अनिवार्य है। सीमातीत धैर्य, बल, दुःख आने पर ध्रुवता का आचरण करना जिनकल्पी योगियों के लिए आवश्यक है। 'विशेषावश्यकभाष्य' में जिनकल्पी का लक्षण दिया है-जो वज्रऋषभनाराच, संहनन वाला, नवपूर्वज्ञाता, परीषह-उपसर्ग-सहिष्णु हो। अतः पूर्वोक्त तथ्य के अनुसार जिनकल्पीयोगी प्रत्येक कष्ट को सहन करने में सक्षम होते हैं।
१. 'जैनागमों में अष्टांगयोग' से भाव ग्रहण, पृ. १७ २. विशेषावश्यकभाष्य भाषान्तर, भा. १, पृ. १२
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