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मोक्ष से जोड़ने वाले : पंचविध योग ७९
आत्मा में रमण करना। यही भावनायोग का विषय है । भावनाओं के आलम्बन से भावनायोग द्वारा आत्मा और परमात्मा का संयोग हो जाता है ।
भावनायोग : संसार-समुद्र का अन्त कराने वाला
'सूत्रकृतांगसूत्र' में भावनायोग का महत्त्व बताते हुए कहा गया है - भावनायोग से जिसकी आत्मा शुद्ध हो गई है, वह साधक जल में नौका के समान है। जिस प्रकार किनारे लगने पर नौका का विश्राय मिलता है, उसी प्रकार भावनायोग के साधक को भी संसार-समुद्र के किनारे लगते ही (सर्वकर्मों से मुक्त होते ही या जन्म-मरणरूप संसार से मुक्त होते ही ) समस्त दुःखों से छुटकारा मिलकर परम शान्ति का लाभ होता है। इसीलिए कहा गया है - " भावना भवनाशिनी ।" " वस्तुतः भावना संसार-समुद्र का अन्त कराने वाली है।
'उत्तराध्ययनसूत्र' में कहा गया है- “ शरीर नौका है, जीव (आत्मा) नाविक है और संसार (जन्म-मरणरूप चतुर्गतिक संसार) समुद्र कहा गया है, जिसे महर्षिगण पार कर जाते हैं।"
'उत्तराध्ययनसूत्र' की पूर्वोक्त गाथा में शरीर को नौका कहा गया है, जबकि 'सूत्रकृतांगसूत्र' में भावनायोग को जल में नौका की उपमा दी गई है। इन दोनों पाठों की संगति इस प्रकार बिठानी चाहिए। मन, बुद्धि, चित्त और हृदय आदि . अन्तःकरण भी तो शरीर के ही अन्तर्गत हैं, उसी के अभिन्न अंग हैं। शरीर के रहते ये रहते हैं, शरीर के नष्ट होते ही ये भी नष्ट हो जाते हैं। ऐसी स्थिति में . जिस महर्षि (जीवरूपी) नाविक के पास जल में (संसार - समुद्र में ) शरीररूपी नौका के साथ अन्तःकरण में भावनायोगरूपी आन्तरिक निश्छिद्र नौका होगी, वही महर्षि संसार-स् र-समुद्र को पार करके सर्वकर्ममुक्तिरूप मोक्ष के तट पर पहुँच पाएगा और सर्वदुःखों (कर्मबन्धनों) से मुक्त हो जाएगा। यह है भावनायोग का माहात्म्य !
भावना का स्वरूप, महत्त्व और विविध अंग
उत्तराध्ययन, भगवतीसूत्र, सूत्रकृतांग, आचारांग आदि शास्त्रों में भावनाओं का बहुत बड़ा महत्त्व बताया गया है। जैनागमों में जहाँ-जहाँ किसी श्रमण निर्ग्रन्थ के दीक्षित होने के पश्चात् उसकी जीवनचर्या का वर्णन आता है, वहाँ प्रायः यह
१. (क) भावणाजोग - सुद्धप्पा, जले णावा व आहिया । णावा व तीर-संपन्ना सव्व- दुक्खा तिउट्टइ || (ख) 'जैनागमों में अष्टांगयोग' से भावांश ग्रहण, पृ. १६ २. सरीरमाहु नावत्ति, जीवो वुच्चइ नाविओ । संसारो अण्णवो वृत्तो, जं तरंति महेसिणो ॥
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- सूत्रकृतांग, श्रु. १, अ. १५, गा. ५
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-उत्तराध्ययन २३/७३
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