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ॐ मोक्ष से जोड़ने वाले : पंचविध योग ॐ ७७ *
(२) भावनायोग
भावनायोग क्या है ? कर्मपुद्गलों के जड़-बन्धनों से मुक्त होने के परम उपायभूत अध्यात्मयोग का वर्णन करने के अनन्तर भावनायोग का निरूपण इसलिए किया गया है कि अध्यात्मयोग मोक्ष-प्राप्ति का बीजारोपण है तो भावनायोग उस बीज को बार-बार सिंचन करके अंकुरित करना है। भावनायोग का संक्षिप्त निर्वचन ‘योगभेद द्वात्रिंशिका' में इस प्रकार किया गया है-"अभ्यासोऽस्य बुद्धिमतो, भावना बुद्धिसंगतः।" (अध्यात्मयोग से प्राप्त हुए) अध्यात्म-तत्त्व का बुद्धिसंगत = विचारपूर्वक (तदनुचिन्तनात्मक) बार-बार अभ्यास करने का नाम भावनायोग है।”
अध्यात्म-तत्त्व को चित्त में स्थिर करने के लिए भावनायोग आवश्यक ___ जिस प्रकार सतत अभ्यास और निरन्तर चिन्तन-स्मरण से ही समझा हुआ पदार्थ चित्त में स्थिर रह सकता है, उसी प्रकार अध्यात्म-तत्त्व को हृदय-मन्दिर में स्थिर करने के लिए भावना द्वारा उसका दीर्घकाल तक निरन्तर सत्कारपूर्वक चिन्तन करना परम आवश्यक है। इस प्रकार के सतत चिन्तन में अवलम्बनरूप हैं ये विविध भावनाएँ। इसलिए अध्यात्मयोग को चित्तभूमि में दीर्घकाल तक स्थिर करना भावनार्योग पर निर्भर है। ‘पातंजल योगदर्शन' में इसी तथ्य को अनावृत करने के लिए एक सूत्र है-“स तु दीर्घकाल-नैरन्तर्य-सत्कारासेवितो दृढभूमिः।" अर्थात् वह (अध्यात्म) योग दीर्घकाल तक निरन्तर नियमित रूप से अत्यन्त आदर एवं श्रद्धाभक्तिपूर्वक सेवन करने = अभ्यास करने से चित्त में दृढ़तापूर्वक स्थिर हो जाता है। बुद्धिसंगत चिन्तनरूप भावना के स्वरूप में भी चिन्तन के साथ ये तीन विशेषण इसी उद्देश्य से दिये गए हैं कि यह आत्मा अनादिकाल से कषाय-नोकषाय, राग-द्वेष-मोहादि वैभाविक संस्कारों = कर्मजन्य उपाधियों से ओतप्रोत हो रही है। इन वैभाविक संस्कारों का क्षय, उपशम या क्षयोपशम हुए बिना आत्मा आध्यात्मिक • विकास की ओर या अपने शुद्ध स्वरूप में स्थिति (मुक्ति) की ओर गति-प्रगति कर नहीं सकती और इन वैभाविक संस्कारों का क्षय, उपशम या क्षयोपशम भी आत्मा के स्वाभाविक ज्ञानादि गुणों के प्रकट होने से ही हो सकता है। आत्मा के निजी गुणों (ज्ञान, दर्शन, शक्ति और आनन्द) का प्रकटीकरण या विकास अध्यात्मयोग की अपेक्षा रखता है। किन्तु उन आत्मिक-गुणों का विकास या प्रकटीकरण अध्यात्मयोग से होने पर, दूसरे शब्दों में अध्यात्मयोग के प्रभाव से उन वैभाविक संस्कारों विलय, क्षयोपशम या उपशम हो जाने पर पुनः-पुनः उक्त वैभाविक संस्कारों का १. (क) 'जैनागमों में अष्टांगयोग' से भाव ग्रहण, पृ. १६
(ख) 'योगभेद द्वात्रिंशिका' (उपाध्याय यशोविजय जी) से भाव ग्रहण, श्लो. ९
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