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ॐ मोक्ष से जोड़ने वाले : पंचविध योग ॐ ७५ ®
यथायोग्य निरूपण तथा अनेकान्तदृष्टि से हेय-उपादेय का ज्ञान अध्यात्मयोग से ही हो सकता है।
कर्मविज्ञान की दृष्टि से जब हम इस तत्त्व पर चिन्तन करते हैं, हमारे समक्ष आत्मा के साथ संयोग-वियोगजन्य निम्नोक्त छह प्रश्न उपस्थित होते हैं, जिनका समाधान कर्मविज्ञान इस प्रकार करता है-(१) आत्मा है, (२) आत्मा सुख-दुःख (कर्मों) का कर्ता है, (३) वही सुख-दुःखद कर्मों का भोक्ता है, (४) आत्मा परिणामिनित्य होने से नित्य भी है, कर्मों के जड़-बन्धनों से युक्त होने से विभिन्न गतियों में गमन करने के कारण अनित्य भी है, (५) जड़ कर्मों के बन्धनों से मुक्त होने का उपाय भी है, और (६) कर्मबन्धों से सर्वथा मुक्त भी है, वह मोक्ष भी प्राप्त करता है। ___ इन छह तथ्यों के परिप्रेक्ष्य में यह चिन्तन भी होता है-कर्मों का संयोग आत्मा को किन कारणों से होता है ? यह संयोग अनादि है या सादि ? यदि अनादि है तो उसका विच्छेद कैसे हो सकता है ? कर्म का स्वरूप कैसा है ? कर्मबन्ध के कितने
और कैसे-कैसे प्रकार हैं? उनके भेद-प्रभेद कौन-कौन-से हैं ? किन कारणों से कौन-से कर्म का बन्ध होता है? क्या कर्म बँधने के बाद तुरंत फल मिल जाता है या बाद में ? क्या बद्धकर्मों के फल में परिवर्तन या संक्रमण भी किया जा सकता है? किस-किस गुणस्थान में कर्मों की कितनी प्रकृतियों का बन्ध, उदय और सत्त्व (सत्ता) है ? कर्मों का बन्धादि नियमबद्ध है या अनियमित? वर्तमान में आत्मा किस स्थिति में है? वह अपनी मूल स्वरूप स्थिति को पा सकती है या नहीं ? पा सकती है तो किन-किन उपायों से? इत्यादि प्रश्नों का समाधान पाने के लिए अध्यात्मयोग का ज्ञान और अनुभव नितान्त आवश्यक है।
अध्यात्मयोग की फलश्रुति 'योग, प्रयोग और अयोग' में अध्यात्मयोग की फलश्रुति बताते हुए कहा गया है-“जिस साधक ने अध्यात्मयोग साध्य कर लिया है, वही आत्मा ज्ञाता-द्रष्टा है। उसी आत्मा को आत्म-ज्ञान उपलब्ध हो जाता है। उस भूमिका पर पहुँचने पर उसे यह स्पष्ट अनुभव या भेदविज्ञान हो जाता है कि मैं शरीर नहीं हूँ, मैं पुद्गलरूपी या मूर्त नहीं हूँ। यह अध्यात्मयोग की ही भूमिका हो सकती है।” चिन्तन की जो पहले विक्षिप्त अवस्था थी, (इस भूमिका पर आरूढ़ होने पर) उसमें परिवर्तन आ जाता है। उसकी समस्त भ्रान्तियाँ नष्ट हो जाती हैं और वह स्पष्ट अनुभव करने लगता है-मैं शरीर नहीं हूँ। आज तक जो भ्रम था कि मैं और शरीर एक हैं। जहाँ मैं हूँ, वहाँ शरीर है; जहाँ शरीर है, वहाँ मैं हूँ; किन्तु अध्यात्मयोग के अभ्यास से
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