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ॐ ७०
कर्मविज्ञान : भाग ८ *
कारण) इससे पूर्व (चतुर्थ) गुणस्थान में भी उपचार से अध्यात्म माना जाता है।" “सम्यग्दर्शन-ज्ञानयुक्त क्रिया अपुनर्बन्धक नामक चतुर्थ गुणस्थान से प्रारम्भ होती है। अतः चौथे गुणस्थान से लेकर चौदहवें गुणस्थान तक क्रमशः उत्तरोत्तर जो विशुद्ध क्रियाएँ होती हैं, वे अध्यात्ममयी मानी गई हैं।” “जो साधक ऐसी अध्यात्ममयी क्रिया शान्त, दान्त, सदा गुप्तेन्द्रिय, विश्ववत्सल एवं दम्भरहित होकर करता है, वह उसके अध्यात्म-गुणों की वृद्धि के लिए होती है।” सम्यग्ज्ञानपूर्वक शुद्ध क्रियाएँ अध्यात्मरूप हैं .
जिस गुणस्थान से जीव तीव्र (अनन्तानुबन्धी कषाय तथा मिथ्यात्व के परिणामपूर्वक पुनः पापकर्मों का बन्धन नहीं करता, उसे अपुनर्बन्धक गुणस्थान कहते हैं। यह चतुर्थ अविरति सम्यग्दृष्टि नामक गुणस्थान है, जहाँ अनन्तानुबन्धी कषाय का उदय न होने से तीव्र पापकर्म का परिणाम नहीं होता। इस गुणस्थान से लेकर अयोगीकेवली नामक चौदहवें गुणस्थान तक उत्तरोत्तर क्रमशः शुद्धियुक्त क्रिया होती है, यानी चौथे से लेकर दसवें गुणस्थान तक उत्तरोत्तर कषायों का ह्रास होते संज्वलन लोभकषाय का भी क्षय हो जाता है तथा ग्यारहवें-बारहवें गुणस्थान में शुद्ध परिणामों से मोह क्रमशः शान्त और क्षीण हो जाता है। तेरहवें गुणस्थान की समाप्ति तक योगों की शुद्ध क्रिया रहती है। तात्पर्य यह है कि जैसे-जैसे कषायों का ह्रास और मोह का उपशम और क्षय होता जाता है, वैसे-वैसे परिणाम शुभ से शुभतर, शुभतम और अन्त में शुद्ध परिणामों से ज्ञान की निर्मलता और क्रिया (प्रवृत्ति) की बहुमानता से उत्तरोत्तर शुद्ध ज्ञानपूर्वक क्रिया होती है। उक्त सारी क्रियाओं को जिनेश्वरों ने अध्यात्ममयी-अध्यात्मरूप ही मानी है। सम्यक्त्व नामक प्रथम गुणश्रेणी से लेकर अयोगीकेवली नामक ग्यारहवीं गुणश्रेणी तक उत्तरोत्तर असंख्यातगुणी निर्जरा होती है।
१. अपुनर्बन्धकाद्यावद् गुणस्थानं चतुर्दशम्।
क्रमशुद्धिमती तावत् क्रियाऽऽध्यात्ममयीमता॥४॥ तत्पंचमगुणस्थानादारभ्यैवेतदिच्छति। निश्चयो व्यवहारस्तु पूर्वमप्युपचारतः॥१३॥ शान्तो दान्तः सदा गुप्तो मोक्षार्थी विश्ववत्सलः। निर्दम्भां यां क्रियां कुर्यात् साऽध्यात्मगुणवृद्धये॥७॥
-अध्यात्मसार, प्र. १, अ. २, श्लो. ४, १३, ७ २. (क) 'अध्यात्मसार' (महामहोपाध्याय श्री यशोविजय जी) से भाव ग्रहण, प्र. १, अ. २,
श्लो. ४, ८-१0 की व्याख्या (ख) सम्यग्दृष्टि-श्रावक-विरतानन्त-वियोजक-दर्शनमोह-क्षपकोपशमकोपशान्तमोह-क्षपक
क्षीणमोह-जिनाः क्रमशोऽसंख्येयगुणनिर्जराः। -तत्त्वार्थसूत्र, अ. ९, सू. ४७
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