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ॐ ७२
कर्मविज्ञान : भाग ८0
कहते हैं। सूत्रकृतांगसूत्र' में अध्यात्मयोगी भिक्षु की अर्हता का स्पष्ट निर्देश करते हुए कहा गया है-“अज्झप्प-जोग-सुद्धादाणे उवट्ठिए ठियप्पा संखाए ।" अर्थात् जिस साधक का चारित्र अध्यात्मयोग से शुद्ध है, जो स्वरूपरमणरूप चारित्र में सदा उद्यत रहता है और जो स्थितात्मा है, यानी अपने आत्म-भावों में स्थित है या स्थितप्रज्ञ है अथवा मोक्षमार्ग में जिसका चित्त स्थिर है तथा (सदैव सभी प्रवृत्तियों में आत्मा का ही भान (ध्यान) रखे अथवा शरीर और आत्मा दोनों के गुण, धर्म
और स्वभाव का चिन्तन करे (वही सच्चे माने में अध्यात्मयोगी है)। ‘प्रश्नव्याकरणसूत्र' में भी मुमुक्षु आत्मा को अध्यात्म-ध्यान से युक्त होने का स्पष्ट निर्देश किया गया है। इसी हेतु से आचार्य हरिभद्रसूरि ने सर्वप्रथम अध्यात्मयोग द्वारा मोक्ष के द्वार पर दस्तक देने की आवश्यकता बताई है। ‘भगवद्गीता' में अध्यात्मयोगी का सक्रिय आचार-निर्देश किया गया है-“जिस मनुष्य की आत्मा में ही रति (प्रीति) है, जो आत्मा में ही तृप्त है तथा आत्मा में ही सन्तुष्ट है, उस (अध्यात्मयोगी) के लिए अन्य कोई भी कर्त्तव्य नहीं है।'' ‘प्रश्नव्याकरण' में जो अध्यात्म-ध्यानयुक्त होने का निर्देश अध्यात्मयोगी साधक के लिए किया गया है, उसकी व्याख्या भी यही की गई है कि प्रत्येक प्रवृत्ति में आत्मा को सामने रखकर आत्मावलम्बनरूप ध्यान से युक्त रहे, अर्थात् चित्त को आत्म-बाह्य परभावों-विभावों से जाने से रोके। मुमुक्षु साधक अध्यात्मयोग यानी आत्मा के साथ हरदम जुड़े रहने का ध्यान रखे, इसी दृष्टि से अभयदेवसूरि ने अध्यात्म-ध्यान से युक्त रहना ही अध्यात्मयोग का रहस्यार्थ बताया है।' अमूर्त आत्मा से प्रत्येक प्रवृत्ति को कैसे जोड़ा जाए ? ___ अध्यात्मयोग का जब यह अर्थ स्वीकार किया जाता है, तब सहसा यह प्रश्न उपस्थित होता है कि आत्मा तो अमूर्त है, अरूपी है, निराकार है, वह तो इन इन्द्रियों से ग्राह्य नहीं है, तब फिर प्रत्येक प्रवृत्ति, चर्या या क्रिया में आत्मा के साथ योग कैसे किया जाए? उसका आलम्बन कैसे लिया जाए ? क्योंकि हमारे जीवन का समग्र बाह्य वातावरण, सारा बाह्य रूप एवं सारा ही परिवेश जो मूर्त और दृश्यमान है, वह पौद्गलिक है, पर-भावों से सम्पृक्त है या विभावों से लिपटा हुआ है, हमारी आँखें, नाक, कान, अंगोपांग, शरीर, वाणी, मन, बुद्धि, चित्त आदि सव
१. (क) सूत्रकृतांगसूत्र, श्रु. १. अ. १६, सू. ४
(ख) सूत्रकृतांग अमरसुखबोधिनी व्याख्या, पृ. ९९१-९९२ (ग) अज्झप्पज्झाणजुत्ते (अध्यात्मध्यानयुक्तः)-अध्यात्मनि आत्मानमधिकृत्य आत्मावलम्वनं
ध्यानं चित्तनिरोधस्तेनयुक्तः, इति व्याख्या। -प्रश्नव्याकरण व्याख्या, ३ संवरद्वार (घ) यस्त्वात्मरतिरेव स्यादात्मतृप्तश्च मानवः।
आत्मन्येव च सन्तुष्टस्तस्य कार्यं न विद्यते॥ -भगवद्गीता, अ. ३, श्लो. १७
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