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समतायोग का पौधा : मोक्षरूपी फल ६१
- कर बैठेगा। वैद्य अगर रोगी की हाँ में हाँ मिलाएगा, तो रोगी के शरीर को नष्ट कर देगा और गुरु (धर्म-गुरु या बुजुर्ग - गुरु जन) अपने अनुयायी को भयवश सम्यग्दृष्टि या सैद्धान्तिक दृष्टि न रखकर सच्ची बात नहीं कहेगा तो धर्म (संवर-निर्जरारूप धर्म) को शीघ्र नष्ट कर देगा । अतः समतायोगी के मन, बुद्धि, चित्त और हृदय में समत्व की दृष्टि स्पष्ट होनी चाहिए ।
एकान्त एकांगी दृष्टिकोण समतामय नहीं होता
यही कारण है कि भगवान महावीर ने सर्वकर्ममुक्ति (मोक्ष) के लिए एकान्त एक दृष्टिकोण न रखकर १५ प्रकार की दृष्टि से मोक्ष प्राप्ति बताई है।' 'नंदीसूत्र' में भी कहा है- “जिसकी समतामयी सम्यग्दृष्टि होगी, उसके द्वारा मिथ्या श्रुत कहे जाने वाले प्रत्येक शास्त्र भी सम्यक्रूप से परिगृहीत होने के कारण सम्यक् श्रुत बन जाएँगे और मिथ्यादृष्टि के द्वारा मिथ्यारूप से ग्रहण किये जाने के कारण सम्यक् श्रुत् कहे जाने वाले शास्त्र भी मिथ्या श्रुत बन जाएँगे।” ” यह समतामयीं और विषंमतामयी दृष्टि का ही अन्तर है । इसीलिए कहा गया है - " अनेकान्तदृष्टि से समभाव से भावित आस्था (बुद्धि) - होने पर चाहे श्वेताम्बर हो, दिगम्बर हो, बौद्ध हो, वैदिक हो या और कोई हो, सर्वकर्ममुक्तिरूप मोक्ष प्राप्त कर सकता है । " इसलिए दृष्टिपरक समभाव हो तो जीवन के प्रत्येक क्षेत्र में समतामयी अनेकान्त दृष्टि रखकर पारस्परिक विरोध, कलह, वाद-विवाद, झगड़े, द्वन्द्व, संघर्ष सुलझाये जा सकते हैं। समभाव से परिपूत दृष्टि होने पर प्रत्येक प्रवृत्ति में जीव के चरण यत्नाचारपूर्वक पड़ेंगे, जिससे पापकर्म का बन्ध तो होगा ही नहीं, पुण्यकर्म से भी आगे बढ़कर शुद्धि धर्माचरणपूर्वक संवर- निर्जरा का लाभ प्राप्त कर सकता है। समभाव के प्रति निष्ठा, सम्यग्दृष्टि, श्रद्धाभक्ति, रुचि, तन्यमता न होने से तप, जप, त्याग, व्रत, नियम, प्रत्याख्यान आदि के साथ भी मद, मत्सर, ईर्ष्या, माया, दम्भ, अहंकार, विज्ञापन, फलासक्ति, दिखावा आदि का विष उन साधनाओं को निष्फल और चौपट कर सकता है। उसके साथ इहलौकिक - पारलौकिक भोगाकांक्षा, निदान, फलाकांक्षा, विचिकित्सा और शंका तथा मूढदृष्टि का दोष घुस जाने से साधना को विकृत कर सकता है । समभाव की दृष्टि न होने से व्रती, महाव्रती एवं त्यागी, तपस्वी, क्रियाकाण्डी आदि साधकों में प्रतिष्ठा, प्रतिस्पर्धा, प्रसिद्धि, प्रशंसा, कीर्ति आदि की घुड़दौड़ या होड़ भी हो सकती है, जो कर्मबन्ध की कारण हैं।
१. (क) देखें - उत्तराध्यनसूत्र, अ. ३६, गा. ५०
(ख) देखें - नंदीसुतं में १५ प्रकार के सिद्धों का उल्लेख, सू. २१
२. एयाई चैव मिच्छदिट्ठिस्स मिच्छत्तपरिग्गहियाई मिच्छासुयं । एआई चेव सम्मदिट्ठिस्स सम्मत्त परिग्गहियाई सम्मसुयं ॥ ३. (क) सेयंबदो य आसंबरो य, बुद्धो वा तहेव अन्नो वा । समभावभावियप्पा लहइ मुक्खं न संदेहो ॥
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- नंदीसूत्र, सू. ४२
- आचार्य हरिभद्र
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