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समतायोग का पौधा : मोक्षरूपी फल ५९
(आत्मा) में आवास करना ( स्थित होना) चाहता है, तो आत्म - स्व-भाव में स्थिरता
की भावना कर। उसी से ही जीव का समत्व (या आत्मा का सामान्य) गुण सम्पूर्ण
होता है।” आशय यह है कि विषयों और काषायिक विकारों से मुक्त, आत्मा का जो शुद्ध स्वरूप है, उसी में लीन रहना, उसी की प्रति क्षण जागृतिपूर्वक स्मृति रखना, उसी शुद्ध आत्मा का अहर्निश अध्यात्म में रत रहना अथवा उसी शुद्ध स्वरूप को पा लेना ही सामायिक का अर्थ प्रयोजन या फल है। आचार्य अमितगति ने आत्मा का अपने शुद्ध स्वरूप में लीन रहने को सच्ची सामायिक साधना बताते हुए कहा - " जिस आत्मा से राग-द्वेष, कषाय और इन्द्रिय-मन के विषयों के प्रति आसक्ति आदि परास्त (निरस्त ) हो गए हैं, उसी निर्मल (शुद्ध) आत्मा को सुबुद्धिमानों ने सामायिक माना है।" इसी तथ्य को 'विशेषावश्यकभाष्य' में इसी तथ्य को प्रकारान्तर से प्रगट किया गया है - "समताभाव ( सामायिक) में उपयोगयुक्त (उपयुक्त ) जीव ( आत्मा ) स्वयं सामायिक है।" अर्थात् समताभाव में इतना तन्मय हो जाए कि उसे चारों ओर आत्मा ही आत्मा का दिव्यनेत्रों (अन्तरनयनों) से दर्शन हो। उसे दूसरा कोई भी विकल्प न आए, ऐसा आत्म-ध्यान ही सामायिक साधना का प्राण है, वही संवर, निर्जरा और अन्त में मोक्ष प्राप्तं हो ।” जैसे कि 'भगवद्गीता' में कहा गया है - " जिसकी आत्मा में रति ( रमणता ) हो, जो मानव आत्मा में ही तृप्त हो और आत्मा में ही सन्तुष्ट हो, उसके लिए फिर दूसरा कोई कार्य या विकल्प नहीं रहता, वह कृतकृत्य हो जाता है ।"
इससे स्पष्ट प्रतीत होता है कि समतायोग ( सामायिक) और आत्म-भावरमणता दोनों का अन्योन्याश्रय सम्बन्ध है । इसलिए एक आचार्य ने समतायोग की इसी प्रकार की व्युत्पत्ति की है - " समय एव = आत्मन्येव सामायिकम् । " - समय अर्थात् आत्मा में होना ही सामायिक हैं।” ‘आवश्यकनिर्युक्ति' में आचार्य भद्रबाहु स्वामी इसी तथ्य का समर्थन करते हैं–सामायिक क्या है ? आत्मा की स्वाभाविक परिणति = स्व-भाव समताभाव में परिणति की दृष्टि से भावतः जीव (आत्मा) ही सामायिक है। आत्म-भाव में रमण करने वाले साधक के लिए शुद्ध आत्मा ही साध्य है, इसलिए एक आचार्य ने कहा- “समयः आत्मा स एव साध्यो यस्मिन् तत् सामायिकम्।" - समय यानी आत्मा ही जिसमें साध्य है, वह सामायिक (समतायोग ) है । '
१. (क) समयसार टीका
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(ख) अमितगति श्रावकाचार
(ग) आवासं जइ इच्छसि, अप्पसहावं कुणदु थिर भावं । तेणदु सामण्णगुणं, संपुण्णं होदि जीवस्स ॥
(घ) दुःखे - सुखे वैरिणि बन्धुवर्गे, योगे वियोगे भवने वने वा । निराकृता शेष ममत्वबुद्धेः, समं मनो मेऽस्तु सदाऽपि नाथ ! (ङ) सामाइओवउत्तो जीवो सामाइयं सयं चेव ।
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- नियमसार १४७
- सामायिक पाठ ३
- विशेषावश्यक, गा. १५२९
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