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ॐ ४४ कर्मविज्ञान : भाग ८ ४
(२) मैत्री आदि भावनामूलक समभाव - यह भावनात्मक समभाव का दूसरा रूप है। इस समभाव में समतायोगी साधक मैत्री आदि भावनाओं के माध्यम से समग्र विश्व के प्राणिमात्र को अपने साथ जोड़ने के लिए उद्यत होता है। समभाव का अभ्यासी साधक मैत्री आदि चारों भावनाओं का प्राणियों की भूमिका के अनुसार यथायोग्य संयोजन करता है। वह अन्तर से सदैव सर्वत्र सामायिक पाठ में उक्त वीतरागप्रभु से प्रार्थना की भाषा में पुकार करता है
“हे वीतरागदेव ! मैं चाहता हूँ कि मेरी आत्मा सदैव प्राणिमात्र के प्रति मैत्रीभावना, गुणिजनों के प्रति प्रमोद या मुदिताभावना, दुःखित - पीड़ित जीवों के प्रति करुणाभावना और धर्म से विपरीत आचरण करने वाले पापात्मा, दुष्ट, दुर्जन या विरोधी जीवों के प्रति माध्यस्थ या उपेक्षाभावना विशेष रूप से धारण करे, सँजोए । " " मैत्री आदि चारों भावनाओं के सम्बन्ध में हमने 'मैत्री आदि चार भावनाओं का प्रभाव' शीर्षक निबन्ध में पर्याप्त प्रकाश डाला है। भगवान महावीर ने प्रत्येक भव्य जीव को प्रेरणा दी है कि अपनी अन्तरात्मा की खिड़कियों को खोल देखें कि तुम्हें जगत् के जीवों से मैत्री पसंद है या अमैत्री ( शत्रुता ) ? यदि मैत्री पसंद है तो फिर तुम भी प्राणिमात्र के साथ मैत्रीभाव का संकल्प करो । तुम्हारी मैत्रीभावना की प्रतिध्वनि दूसरे प्राणी पर भी पड़ेगी, वह भी तुम्हारे साथ मैत्री का हाथ बढ़ाएगा। भगवान महावीर से पूछा गया - " आपके शत्रु कौन हैं ?" उन्होंने अपनी समतायोग की शैली में उत्तर दिया- "मेरी सभी प्राणियों के प्रति मैत्री है, मेरा किसी से वैर-विरोध है ही नहीं, मेरा कोई शत्रु नहीं है। " ३ एक आचार्य ने मैत्री को सामायिक (समतायोग) से अभिन्न बतलाते हुए कहा है"सर्वभूत- मैत्री 'साम' (समभाव) है, उसकी आय उपलब्धि या लाभ सामायिक (समत्वयोग) है।” 'भगवद्गीता' में भी इस तथ्य को प्रकट किया गया है - " जो व्यक्ति निःस्वार्थ हितैषी, मित्र या शत्रु, मध्यस्थ, उदासीन ( तटस्थ या निष्पक्ष ), द्वेषी तथा बन्धुजनों, धर्मात्माओं और पापात्माओं पर भी समबुद्धि है, वही विशिष्ट समतायोगी है।”४
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१. सत्त्वेषु मैत्रीं गुणिषु प्रमोदं, क्लिष्टेषु जीवेषु कृपापरत्वम्। माध्यस्थ्यभावं विपरीतवृत्तौ सदा ममाऽऽत्मा विदधातु देव !
२. अप्पणा सच्चमेसेज्जा, मित्तिं भूएहिं कप्पए ।
३. मित्ती मे सव्व भूएस वेरं मज्झं न केणइ ।
४. (क) सर्वभूतमैत्री साम, तस्यायः लाभः समायः, समाय एव सामायिकम् ।
(ख) सुहृन्मित्रार्युदासीन - मध्यस्थ-द्वेष्य-बन्धुषु । साधुष्वपि पापेसु समबुद्धिर्विशिष्यते ॥
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- सामायिक पाठ, श्लो. १
-उत्तराध्ययन, अ. ६, गा. २
- आवश्यकसूत्र
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- गीता, अ. ६, श्लो. ९
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