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जैन - रत्न
( व्यंतर योनि के देवेन्द्र १६ ) ३१ - ३२ - पिशाचोंके इन्द्र काल और महाकाल; ३३ - ३४ - भूतोंके इन्द्र सुरूप और प्रतिरूप; ३५-३६ - यज्ञों के इन्द्र पूर्णभद्र और मणिभद्र; ३७-३८ - राक्षसों के इन्द्र भीम और महाभीम; ३९-४०-किन्नरोंके इन्द्र किन्नर और किंपुरुष; ४१-४२ - किंपुरुषोंके इन्द्र सत्पुरुष और महापुरुष; ४३ - ४४ - महोरगोंके इन्द्र अतिकाय और महाकाय; ४५-४६ - गंधर्वोके इन्द्र गीतरति और गीतयशा;
( बाण व्यंतरोंकी दूसरी आठ निकायके इन्द्र १६ ) ४७-४८- अप्रज्ञाप्तिके इन्द्र संनिहित और समानक; ४९-५० - पंचप्रज्ञाप्ति के इन्द्र घाता और विधाता; ५१-५२ - ऋषिवादितना के इन्द्र ऋषि और ऋषिपालक ५३ - ५४ - भूतवादितना के इन्द्र ईश्वर और महेश्वर; ५५-५६ - कंदितनाके इन्द्र सुवत्सक और विलाशक; ५७-५८ - महाक्रंदितनाके इन्द्र हास और हासरित; ५९-६० - कुष्मांडनाके इन्द्र श्वेत और महाश्वेत; ६१-६२ - पावकनाके इन्द्र पवक और पवकपतिः ( ज्योतिष्क देवोंके इन्द्र २ ) ६३-६४ - ज्योतिष्क देवोंके इन्द्र-सूर्य और चन्द्रमा
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इस तरह वैमानिकके दस ( संख्या १- १० तक ) इन्द्र, भुवनपतिकी दस निकायके बीस ( संख्या ११-३० तक ) इन्द्र, व्यंतरोंके बत्तीस ( संख्या ३१-६२ ) इन्द्र, और
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