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जैन कवियों के ब्रजभाषा प्रबन्धकाव्यों का अध्ययन
शाश्वत सौन्दर्य एवं ऐश्वर्य से अलंकृत किया था । सौन्दर्योपासक जहाँगीर तो इस क्षेत्र में अपने पिता अकबर से भी एक कदम आगे निकल गया और चित्रकला के सम्राट् - पद का अधिकारी बन गया ।
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जहाँगीर के पश्चात् शाहजहाँ के समय चित्रकला को इतना प्रोत्साहन नहीं मिला, जितना वास्तुकला को । 'शाहजहाँ अपने पूर्वजों के समान इस कला का संरक्षण तो करता रहा, किन्तु वह अपने पिता और दादा के समान चित्रकारी का अगाध प्रेमी नहीं था । उसके समय की चित्रकारी में सोने-चाँदी इत्यादि की झलक की प्रधानता थी, किन्तु उसमें नाना प्रकार के रंगों तथा छाया का इस तरह से मिश्रण नहीं था जिससे चित्रकार के भाव सुन्दरता के साथ प्रकट हो सकें ।" अनेक चित्रकारों को उसने राज्याश्रय से वंचित कर दिया था । 'मुगल दरबार से निराश होकर इन कलावन्तों ने राजपूताने के विविध राजाओं और हिमालय के पार्वत्य प्रदेशों के राजाओं का आश्रय लिया और वहाँ जाकर चित्रकला की उन शैलियों का विकास किया, जिन्हें 'राजपूत शैली' व 'पहाड़ी शैली ' कहते हैं ।"
शाहजहाँ का पुत्र दाराशिकोह भी चित्रकला का अनन्य प्रेमी था और उसने चित्रकला की उन्नति में अपना विशिष्ट योग दिया; किन्तु इसके विपरीत औरंगजेब इस कला का शत्रु था । ' कहा जाता है कि उसने बीजापुर के महलों और सिकन्दरा की चित्रकारी पर सफेदी करवा दी थी । जहाँगीर के समय में बने हुए ईसाई चित्रों को उसने बिगड़वा दिया था । "
चित्रकारी अलग-अलग बना दूँगा । यदि एक ही चित्र अनेक चित्रकारों द्वारा भी बनाया जाये तो भी उस एक चित्र के भिन्न-भिन्न अंगों के बनाने वालों के नाम बता दूँगा ।'
--तुजुके जहाँगीरी ( अनुवादक रोजर तथा वैवरिज), जिल्द १, पृष्ठ २० १. डॉ० आशीर्वादीलाल : मुगलकालीन. भारत, पृष्ठ ५८५ ।
२.
सत्यकेतु विद्यालंकार : भारतीय संस्कृति और उसका इतिहास, पृष्ठ ५७७ ।
4. डॉ० मथुरालाल शर्मा : भारत की संस्कृति का विकास, पृष्ठ ३६६