________________
भाषा-शैली
३१५
घत्ता
___ 'पद्धरी' छन्द का प्रयोग जैसे कम काव्यों में हुआ है, वैसे ही 'घत्ता' का प्रयोग भी विरल है । 'पंचेन्द्रिय संवाद' में एक स्थल पर इसका सुन्दर विधान मिलता है । वहाँ यह सोरठा के उपरान्त आया है और कथावस्तु को एकदम आगे बढ़ाने में समर्थ हुआ है :
मन राजा मन चक्रि है, मन सबको सिरदार । मन सों बड़ो न दूसरो, देख्यो इहि संसार । मन तें सबको जानिये, जीव जितै जगमाहिं । मन तें कर्म रूपाइये, मन सरभर कोउ नाहिं ॥
अन्य छन्द - प्रबन्धकाव्यों के अन्य छन्दों मैं अडिल्ल, छप्पय, गीतिका, घनाक्षरी, जोगीरासा, सोरठा, गीता, चामर, बड़दोहा, रोला, करिरवा, चर्चरी, मनहरण, भुजंगी, हरगीत, कुंडलिया, नाराच, सोमवती, चकोर, दुमिला १. पंचेन्द्रिय संवाद, पद्य ११२-१३, पृष्ठ २४६ । २. ज्यों ज्यों भोग संजोग मनोहर, मनवांछित जन पावै। तिसना नागिन त्यों त्यों डंके, लहर जहर की आवै ।
-पार्श्वपुराण, पद्य ६३, पृष्ठ ३४ । ३. खेलत ही उपवन कै मांहि बहुत सहेली संगा। लखि के ताको रूप अनूपम देवनि को सो अंगा॥
-जीवंधर चरित (दौलतराम), पद्य १५०, पृष्ठ ३३ । १. तास गजराज के दंत फुनि दंत करि,
तोरि के करि दीयौ बल विहीनी। सूडि करिके बहुरि सूडि अरि गजतनी, तोरि के भूमि गज डारि दीनौ ।
__-वरांग चरित, पद्य १५५, पृष्ठ ४८ । ५. तब बान के घात केई विदारे । कहं कूर बानी मनो सैल मारे । पड़ो अग्र जो वीरताको पछारै । तबै जाय के ताहि सो वेगि मारै ।।
-जीवंधर चरित (नथमल बिलाला), पद्य ७६, पृष्ठ १५ ।