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लक्ष्य-संधान
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स्वामी मन की भर्त्सना कर' आत्म-तत्त्व को पहचानने का संदेश दिया है । यहाँ यह समझाने की चेष्टा की गयी है कि इन्द्रियादि में आसक्ति का परिणाम वेदना, भय, ग्लानि, पश्चाताप एवं नाना कष्टों को निमंत्रण देना है; और उनकी दासता इतनी भयंकर है कि जीव अभिशापों से अभिशप्त होता जाता है । अत: 'स्व' को भूलकर 'पर' की सेवा में रत रहना कहाँ की बुद्धिमानी है ? कल्याण इसी में है कि इन्द्रियगत राग को छोड़कर आत्मा से अनुराग किया जाये । *
गुरु-भक्ति
यह
'सूआ बत्तीसी' काव्य का उद्देश्य गुरु भक्ति भावना को परिपक्व करना है और भूले-भटके मानव को संदेश देना है कि गुरु अपने स्पर्श से शिष्य रूपी लोहे को शुद्ध कंचन बना देता है । गुरु की पीयूष वाणी विस्मृत कर देने से मनुष्य की वैसी ही गति होती है, जैसी पढ़े पढ़ाये तोते की हुई थी ।' गुरु-वचनों के पुनर्मरण से वह अघ-जाल से वैसे ही मुक्त
१.
२. वही, पृष्ठ ४६-५० ।
1.
४.
मन इंद्री संगति कियेरे, जीव परं जग जोय । कैसे शिवपुर होय ॥
विषयन की इच्छा बढ़ेरे
9.
- पंचेन्द्रिय संवाद, पद्य १३३, पृष्ठ २५० ।
वही, पद्य १२५ से १३१, पृष्ठ २५० ।
वही, पद्य १३४-३५, पृष्ठ २५१ ।
आये दुर्जन दुर्गति रूप । पकड़े सुअटा सुन्दर भूप ॥ डारे दुख के जाल मझार । सो दुख कहत न आवै पार || भूख प्यास बहु संकट सहै । परवस पर महा दुख लहै || अटा की सुधि बुधि सब गई। यह तो बात और कछु भई ॥ आय परे दुख सागर माहि । अब इततें कितकों भजि जाहि ।। - सूआ बत्तीसी, पद्य १५-१७, पृष्ठ २६८-६६