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उपसंहार .
३६५ परिणतियों की भूमिका में ऐसे जीवन के चित्र प्रस्तुत किये हैं जिसको वे गहित एवं विसर्जनीय समझते हैं। जीवन के इन चित्रों में विलासिता के चित्र भी हैं जिसमें भोगवाद की झलक है, लेकिन हमारे कवि इसको धार्मिक उत्कर्ष में बाधक मानते हैं।
__इन कवियों की दूसरी विशेषता यह है कि इन्होंने अधिकांशत: चरितकाव्यों का ही प्रणयन किया है । घटनाओं का उतना ही समावेश है जितना कि किसी चरितकाव्य के लिए आवश्यक समझा जाता है। इन चरितों में एक लक्ष्य निहत है, एक आदर्श कल्पना है जिसकी सिद्धि दो पद्धतियों में हुई है-एक तो तीर्थकरों के आदर्श जीवन को निरूपित करके और दूसरे, भोगवादी जीवन में वृत्तिपरक मोड़ देकर। पहली पद्धति में आदर्श पथ है और दूसरी में वह एक परिणति, एक उपलब्धि है।
जिन भूमियों पर इन कवियों ने शृगार आदि का निरूपण किया है, वहाँ नग्न चित्र बीभत्स आदि के परिपार्श्व में केवल वृत्ति-परिवर्तन के लिए अरुचि की परिस्थितियां पैदा करते हैं। अतएव इन काव्यों में किसी यथार्थवादी भूमिका की आशा करना व्यर्थ है ।
यह यहाँ बात भी अविस्मरणीय है कि इन कवियों ने जैन-आस्थाओं के प्रचार में जितना योगदान दिया, उतना ही चारित्रिक उत्थान में भी दिया । इनकी सबसे बड़ी उपलब्धि यह रही है कि ये लोकरुचि को सदैव अपने सामने रखते रहे और लोकरुचि के प्रति इनकी निष्ठा में धर्म-प्रचार की भावना भी निहित थी। लोक-संगीत, लोक-छन्द और लोकप्रिय कथानकों के माध्यम से इन्होंने साहित्य-सर्जना में योगदान दिया।
इस प्रकार इन कवियों ने समाज, धर्म, दर्शन, साहित्य आदि अनेक परिपाश्वों में अपनी प्रबन्ध-कृतियों को रूपायित किया जिनका निष्कर्षात्मक विवेचन नीचे दिया जाता है :
समाज
इस दिशा में आलोच्य कवियों की महत्त्वपूर्ण देन है । पहले अध्याय में