Book Title: Jain Kaviyo ke Brajbhasha Prabandh Kavyo ka Adhyayan
Author(s): Lalchand Jain
Publisher: Bharti Pustak Mandir

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Page 385
________________ ३६६ जैन कवियों के ब्रजभाषा प्रबन्धकाव्यों का अध्ययन देख चुके हैं कि उस समय समाज के सामान्यतया तीन वर्ग थे । तत्कालीन अधिकांश जैनेतर कवियों ने उसमें से प्रायः प्रथम वर्ग ( सामन्त वर्ग) को ही अपने काव्य का विषय बनाया, अर्थात् उसी के हास - विलास एवं मनोरंजन के लिए अधिकांश काव्य का सृजन किया, जबकि आलोच्य कवियों ने सम्पूर्ण समाज को समान दृष्टि से देखा और उसके प्रायः सभी वर्गों और अंगों को अपने प्रबन्धों में चित्रित करने का प्रयास किया । ये कवि समाज में व्याप्त घुटन और उत्पीड़न को दूर कर एक ऐसे समाज का सृजन करना चाहते थे, जिसे स्वस्थ और आदर्श कहा जा सके । कहना चाहिए कि इन कवियों का काव्य लोकपरिष्करण और लोकमंगल के लिए है । इन्होंने इसके द्वारा मानव को असत् प्रवृत्तियों से हाथ खींचकर सत् प्रवृत्तियों की ओर झुकने के लिए प्रेरित किया और यह सिद्ध करने का प्रयास किया कि अनात्म भावों में लिप्त मनुष्य को आरम्भ से अन्त तक की जीवन-यात्रा में असह्य वेदनाओं से व्यथित होना पड़ता है, अतः आत्म-भावों को अपनाने में ही उसे जीवन में सुख, शान्ति और सफलता मिल सकती है और इस जीवन के साथ ही उसका भावी जीवन भी उज्ज्वल हो सकता । इस प्रकार उन्होंने सत्य, अहिंसा, मार्दव आदि से च्युत मनुष्य को मनुष्यता का पाठ पढ़ाने का प्रयास किया तथा इन सबसे ऊपर इन्होंने मंगलाशा से भरकर आत्मा की बन्ध अवस्था के स्थान पर मुक्तावस्था का चित्र सामने रखा । इतना ही नहीं, सामाजिक सम्बन्धों के मधुर रूप की ओर भी इनकी दृष्टि गयी है । इनके काव्यों से समाज के विविध सम्बन्धों पर सुन्दर प्रकाश पड़ता है। उनमें राजा प्रजा, पिता-पुत्र, भाई-भाई, पति पत्नी, स्वामी सेवक आदि के मध्य आत्मीयता के भाव को विशेष महत्ता दी गयी है । उनमें स्थल-स्थल पर पारस्परिक कर्तव्य की ओर इंगित करते हुए नैतिक मूल्यों की प्रतिष्ठा पर बल दिया गया है । वस्तुत: उनके प्रणेताओं का सारा प्रयास स्वस्थ समाज की सर्जना की दिशा में रहा है । ये समाज को व्यवस्थित रूप देने के अभिलाषी थे ।

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