Book Title: Jain Kaviyo ke Brajbhasha Prabandh Kavyo ka Adhyayan
Author(s): Lalchand Jain
Publisher: Bharti Pustak Mandir

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Page 389
________________ ४०० जैन कवियों के ब्रजभाषा-प्रबन्धकाव्यों का अध्ययन कृति है । वर्णन, घटना एवं भाव के समन्वय तथा महिमामयी उद्देश्य के कारण प्रस्तुत खण्डकाव्य भी उत्कृष्ट ठहरता है। जहाँ तक आलोच्य प्रबन्धकाव्यों के भाव-क्षेत्र का सम्बन्ध है, वह भी संकुचित दिखायी नहीं देता है। उनमें भाव तो प्रायः वे ही हैं, जिनसे मानव हृदय विलोड़ित होता आया है। प्रेम और रति के चित्र भी उनमें आकलित हैं, किन्तु शृंगार के इन चित्रों को प्रवृत्ति के स्थान पर निवृत्ति में प्रश्रय मिला है। उनमें निर्वेद, भक्ति, करुणा, उत्साह आदि के चित्र अधिक उभरे हैं । उनका प्रमुख रस शान्त है और उसके पश्चात् भक्ति । उनमें भक्तिकाल की शान्त एवं भक्ति रसधारा बराबर बहती हुई प्रतीत होती है। __आलोच्य कवियों की भाषा-शैली के क्षेत्र में भी विशिष्ट देन रही है। इनके काव्यों में ब्रजभाषा के सहज और कलात्मक दोनों रूप मिलते हैं। लोक-जीवन से विशिष्ट शब्दों, मुहावरों, लोकोक्तियों एवं उपमानों आदि का चयन कर भाषा की समृद्धि में समुचित योग दिया है। ___ भाषा के अलावा कवियों की शैली भी विचार का अवसर देती है। इनके दोहा, चौपई, सवैया, कवित्त, छप्पय आदि प्रिय छन्द रहे हैं। इनकी अधिकांश कृतियों में 'चाल' छन्द का प्रयोग शैली के क्षेत्र में एक नयी दिशा देता है। इसी प्रकार इनकी अनेक कृतियों में स्थल स्थल पर रागरागिनियों के आधार पर भिन्न-भिन्न देशियों में 'ढाल' का व्यवहार इनकी देशी संगीत के प्रति अभिरुचि को प्रदर्शित करता है । ढालों में लोक तत्त्व उभरा हुआ दिखायी देता है। उनमें लोक-संगीत का विधान और टेक शैली का प्रयोग बहुत ही मार्मिक लगता है। निष्कर्ष यह है कि विद्वानों द्वारा आलोच्य प्रबन्धकाव्यों का प्रबन्धकाव्य-परम्परा' में चाहे जो स्थान निर्धारत किया जाये, किन्तु इतना अवश्य है कि उनमें चिन्तन की, आचारगत पवित्रता की, सामाजिक मंगल एवं आत्मोत्थान की व्यापक भूमिका समाविष्ट है। धार्मिक दृष्टि से तो ये काव्य अविस्मणीय हैं ही, साहित्यिक दृष्टि से भी ये कम उल्लेखनीय नहीं


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