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जैन कवियों के ब्रजभाषा-प्रबन्धकाव्यों का अध्ययन
पृष्ठभूमि पर आधृत है, पर इससे यह नहीं कहा जा सकता कि ये दर्शनकार थे, फिर भी अनेक कवियों की प्रबन्धकृतियाँ तत्त्वचिन्तन और दार्शनिक निरूपण की दृष्टि से भी उत्कृष्ट बन पड़ी हैं। ___ आलोच्य अधिकांश प्रबन्धकारों ने जीव, अजीव, आस्रव, बन्ध, संवर, निर्जरा, मोक्ष, पुण्य और पाप को परम्परा के रूप में ग्रहण किया है। इन्होंने आत्म-तत्त्व (जीव की विभिन्न अवस्थाओं) के चित्रण द्वारा यह सिद्ध करने का प्रयास किया है कि आत्मा ही कर्ता और भोक्ता है। कर्म पुद्गलों के आगमन से आत्मा विकारी भावों से संयुक्त हो जाता है और उनसे मुक्ति पाने पर वह अपनी वास्तविक अवस्था (मुक्तावस्था) को प्राप्त कर लेता है।
साहित्य
समाज, धर्म, दर्शन के अलावा आलोच्य कवियों की साहित्य के क्षेत्र में भी उपलब्धि याँ हैं । युगीन प्रबन्धकाव्य-धारा में इनका विशद योगदान है। इनके द्वारा पुराण, चरित, रास, चौपई, वेलि, मंगल, ब्याह, कथा, चन्द्रिका, संवाद, छन्द संख्या (शतअष्टोत्तरी, राजुल पच्चीसी) आदि विविध नामों के आधार पर प्रबन्धकाव्यों का प्रणयन किया गया है। इनमें वर्णनप्रधान, भाव-प्रधान, गेयात्मक, समन्वयात्मक आदि सभी प्रकार के प्रबन्धकाव्य शामिल हैं। इन काव्यों में अधिकांश चरितात्मक हैं और चरितात्मक काव्यों की परम्परा में हमारे कवियों की यह सबसे बड़ी देन है। वास्तव में ये काव्य भविष्य के लिए दीप-स्तंभ का काम करते हैं ।
आलोच्य प्रबन्धकाव्यों में महाकाव्य भी हैं, एकार्थकाव्य और खण्डकाव्य भी। भूधरदास कृत 'पावपुराण' और नेमिचन्द्र कृत 'नेमीश्वर रास' अपने युग के महाकाव्य हैं। यह युग महाकाव्य-विहीन-सा है, अतः इस दृष्टि से इनका महत्त्व और बढ़ जाता है । इनमें महाकाव्योचित गरिमा, गांभीर्य, उदात्तता एवं रसवत्ता विद्यमान है। फिर भी यह नहीं कहा जा सकता कि ये महाकाव्यविषयक समस्त विशेषताओं से सम्पृक्त हैं। अभाव की छाया इनमें भी देखी जा सकती है। जो हो, महाकाव्यों की परम्परा में इनका अपना स्थान है।