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उपसंहार
आलोच्य प्रबन्धकाव्य ऐसे युग की देन हैं जिसमें दरबारी संस्कृति और सामन्ती विलासिता का बोलबाला था। शृगारपरक मुक्तक काव्यों की सृष्टि अपने उत्कर्ष के दिन देख रही थी। बहुत थोड़े प्रबन्धकाव्यों का उदय अपने अस्तित्व की सूचना देता हुआ शृंगार रस का ही परिपोषण कर रहा था । यद्यपि कुछ प्रबन्ध और मुक्तक रचनाएं भक्ति आदि अन्य रसों को भी संपोषित कर रही थीं, किन्तु उनके वातावरण में शृंगारिकता का ही पुट होता था । ऐसे साहित्यिक वातावरण का कारण जीविकोपार्जन में निहित था। कभी-कभी यश-लिप्सा भी ऐसे वातावरण के लिए जिम्मेदार होती थी। इनके अतिरिक्त साहित्यिक प्रवृत्तियां ऐसे वातावरण के प्रसार में आग में ईंधन का काम कर रही थीं
इस युग में दो प्रकार के कवि होते थे-एक तो वे जो लोक-प्रवाह में बह रहे थे और दूसरे वे जो धार्मिक आग्रह या प्रेरणा से काव्य-सृष्टि कर रहे थे। दूसरे प्रकार के कवियों का लक्ष्य धर्म-प्रचार था। इस युग के जैन कवि इसी तरह के थे । इसीलिए हम देखते हैं कि उनकी रचनाओं में लोक-जीवन का वह स्तर नहीं है जो उस युग का प्रतिनिधि था, वरन हम इन कृतियों में ऐसे जोवन के सम्पर्क में आते हैं जो धार्मिक मोड़ों की संघटना के लिए आवश्यक होता है । अतएव यह कहना उचित न होगा कि ये रचनाएँ सामान्य जीवन का निरूपण करती हैं, अथवा जन-जीवन को समक्ष रखती हैं । इनमें तो ऐसे जीवन-वृत्तों के उदाहरण हैं जिनमें कोई धार्मिक मोड़ . उदृत्त हुआ है।
इन कृतियों की एक विशेषता यह है कि ये सत्य, अहिंसा, प्रेम आदि की किसी वृत्ति को परिणति के रूप में प्रस्तुत करते हैं । यही उनके प्रणेताओं का धार्मिक लक्ष्य है; किन्तु एक बात स्पष्ट है कि आलोच्य कवियों ने वृत्ति