Book Title: Jain Kaviyo ke Brajbhasha Prabandh Kavyo ka Adhyayan
Author(s): Lalchand Jain
Publisher: Bharti Pustak Mandir

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Page 379
________________ ३६० जैन कवियों के ब्रजभाषा प्रबन्धकाव्यों का अध्ययन हो सकता है, जैसे तोता मुक्त हुआ था । वस्तुत: गुरु संसार सागर से तारने की तरी है ।' उसकी महिमा का कोई आर-पार नहीं है । 'मधु बिन्दुक चौपई' काव्य का उद्देश्य भी पाठकों के मानस में गुरुभक्ति की प्रगाढ़ भवना भारना है । गुरु के वचनों के अनुकूल आचरण न करना कितना भयानक है और कितना कष्टप्रद, इस तथ्य को कवि ने बड़ी मार्मिकता से निर्देशित किया है । अज्ञानी पुरुष संसार के महावन में भटकता हुआ अंधकूप में गिरकर पतन की चरम सीमा को पहुंच जाता है, विषय लोलुपता के कारण निस्सीम वेदना को सहता है, क्योंकि वह गुरु के संदेश पर कान नहीं देता । अतः जो विषयाश्रित पुरुष है, वह अंधकूप में पड़े हुए व्यक्ति की भाँति सदैव अतिशय पीड़ा से पीड़ित और व्याकुल रहता है। अनूदित काव्य : धर्म प्रचार एवं प्रसार लक्ष्य की दृष्टि से अनूदित प्रबन्धकाव्यों पर भी विचार कर लेना १. २. सुअटा सोचे हिये मझार । ये गुरु सांचे तारन हार ॥ मैं सठ फिर्यो करम वन माहि । ऐसे गुरु कहुँ पाये नाहिं || अब मो पुण्य उदै कछुभयो । सांचे गुरु को दर्शन लयो । गुरु की गुणस्तुति बारंबार । सुमिरै सुअटा हिये मझार ॥ सुमिरत आप पाप भजि गयो । घट के पट खुलि सम्यक थयो । - सूआ बत्तीसी, पद्य २७-२७, पृष्ठ २७० । मधु की बूंद विषै सुख जान । जिह सुख काज रहयो हितमान || ज्योंनर त्यों विषयाश्रित जीव । इह विधि संकट सहै सदीव || विद्याधर तहं गुरु समान । वे उपदेश सुनावत कान ॥ बहु तुमहि निकासहिं वीर । दूर करहिं दुख संकट भीर । तबहू मूरख माने नाहि । मधु की बूंद विषै ललचाहिं ॥ इतनों दुख संकट सह रहे । सुगुरु वचन सुन तज्यों न चहै ॥ तैसें ज्ञानहीन जियवंत । ए दुख संकट सहै अनंत ॥ - मधु बिन्दुक चौपई, पद्य ४८-५१, पृष्ठ १३८-३६ ।

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