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जैन कवियों के ब्रजभाषा-प्रबन्धकाव्यों का अध्ययन
नहीं है। तू अपने घट के पट खोल,' प्रवृत्तियों के विकृत रूप के प्रति विद्रोह कर और अपने शत्रुओं से पूरी शक्ति के साथ युद्ध कर । तू इस महायुद्ध में विजयी होगा और अपना खोया हुआ राज्य प्राप्त कर अनन्त सुख का भागी बनेगा।
'पंचेन्द्रिय संवाद' प्रबन्धकाव्य का लक्ष्य मनुष्य को इन्द्रियों की दासता की लौह शृंखलाओं से मुक्त होने का पाठ पढ़ाना है। कवि ने आँख, नाक, कान, रसना आदि का मानवीकरण कर इन्हीं के पारस्परिक संवादों द्वारा एक दूसरे को अपदस्थ कर इनके अहं को चूर किया है और इन्द्रियों के
रेन समै सुपनो जिम देखतु, प्रात ह सब झूठ बताया। त्यों नदि नाव संयोग मिल्यो, तुम चेतहु चित्त में चेतन राया ॥
-शतअष्टोत्तरी, पद्य ४८, पृष्ठ १६ । वही, पृष्ठ १०। जगत जीत जिहि विरुद प्रमान । पायो शिवगढ़ रतन निधान । गुण अनंत कहिये कत नाम । इह विधि तिष्ठहि आतम राम । जिन प्रतिमा जग में जहं होय । सिद्ध निसानी देखहु सोय ।। सिद्ध समान निहारहु आप। जातें मिटहि सकल संताप ॥ निश्चय दृष्टि देख घट माहिं । सिद्धरु तोमहि अंतर नाहिं ।। ये सब कर्म होंय जड़ अंग । तू 'भैया' चेतन सवंग ॥
-चेतन कर्म चरित्र, पद्य ८८-१०, पृष्ठ ८३ । जीभ कहे रे आंखि तू, काहे गर्व करांहि । काजल कर जो रंगिये, तोहू नाहिं लजांहि ॥ कायर ज्यों डरती रहे, धीरज नहीं लगार । बात बात में रोय दे, बोले गर्व अपार ।। जहां तहां लागत फिर, देख सलौनो रूप । तेरे ही परसाद तें, दुख पावै चिद्रूप ॥ कहा कहूँ दृग दोष को, मोपै कहे न जाहिं । देख विनासी वस्तु को, बहुर तहां ललचाहिं ॥
--पंचेन्द्रिय संवाद, पद्य ६६-६६, पृष्ठ २४४-४५ ।