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लक्ष्य-संधान
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माया, लोभ, मोह, अष्टकर्म, काम, भोग, विषय, राग, द्व ेष, कषाय आदि आत्म-शत्रुओं' को जीतकर शिवस्वरूप शुद्धात्म-तत्त्व की उपलब्धि का बोध कराना है । इनमें प्रतीक और रूपकों के सहारे दर्शन और आध्यात्म के गूढ़ एवं सूक्ष्म तत्वों के विश्लेषण द्वारा शरीर और संसार की नश्वरता, ३ प्रवृत्तिमार्ग ( भौतिकवाद ) की निस्सारता तथा आत्मा की श्रयता और प्रेयता का चेतन को भान कराया गया है तथा उसे यह संदेश दिया गया है कि तू आत्म-शत्रुओं के वशीभूत होकर अपना सत्पथ भूल गया है, अंधकार में दौड़ लगाता हुआ नाना कष्ट पा रहा है ।" यह तेरा साध्य
१.
२.
कायासी जु नगरी में चिदानन्द राज करें,
मायासी जु रानी पे मोहसो है फौजदार लोभस है वजीर जहाँ
मगन बहु भयो है | क्रोधसो है कोतवार, लूटिबे को रह्यो है ॥
-शतअष्टोत्तरी, पद्य २६, पृष्ठ १४ । ३. बालपने नित बालन के संग खेल्यो है ताकी अनेक कथा रे 1 जोवन आप रम्यो रमनी रस, सोउ तो बात विदित यथा रे ॥ लार परे मुख होत विथा रे । तू चेतत क्यों नहि चेतन हारे ॥ - शतअष्टोत्तरी, पद्य ५२, पृष्ठ १६ । लघुथिति मांहि ।
वृद्ध भयो तन कंपत डोलत, देखि सरीर के लच्छन 'भैया'
हंस पयानो जगत तें, कीनो हरि के चारहि कर्म को, सूधे शिपपुर जांहि ॥ तहं अनत सुख शास्वते, विलसति चेतन राय । निराकार निर्मल भयो, त्रिभुवन मुकुट कहाय ॥
४.
आज सुनि० ॥
तें मिथ्यात्व दशा विषं सुनि प्रानीरे, कीन्हें पाप अनेक । भव अनंत जे तें किये सुनि प्रानीरे, राग द्वेष पर संग
।
आज सुनि० ॥
ज्ञान नेक तो को नहीं सुनि, तब कीने बहु पाप
।
आज सुनि० ॥ दाव | आज सुनि० ॥
वे दुखतोको दिये
हैं सुनि, जो चूको अब - चेतन कर्म चरित्र, पद्य १८०-१८१, पृष्ठ ७३ ।
५.
- चेतन कर्म चरित्र, पद्य ६८२-८३, पृष्ठ ८३ ।
चेतन जीव निहारहु अंतर, सब हैं पर की जड़ काया । इन्द्र कमान ज्यों मेघ घटा महिं, सोभत है पै रहै नहि छाया ||
(क्रमश:)