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लक्ष्य-संधान
३८५ पच्चीसी', 'निशि भोजन त्याग कथा', 'बंकचोर की कथा' प्रभृति काव्यों का लक्ष्य धर्म के आचार-पक्ष पर विशेष बल देते हुए शील, संयम, अहिंसा, क्षमा, व्रत, तप, त्याग आदि के महत्त्व एवं आदर्श को रूपायित करते हुए मानव के हृदय पर यह छाप लगाना है कि जीवन में सुख, वैभव, यश तथा विजय की उपलब्धि के लिए इन्हीं आत्म-भावों को अपना चिर सहचर मानना होगा। ___उपर्युक्त काव्यों में अधिकांशत: नारी नायकों के माध्यम से शील का
और अधम नारी पात्रों के माध्यम से कुशील का सर्वांग विवेचन हुआ है। 'शील' नारी का ही नहीं पुरुष का भी भूषण है, वह समस्त गुणों में उत्कृष्ट है। शील-मार्ग पर चलना असिधार पर चलने के समान है । उस मार्ग पर चलते हुए जान को हथेली पर रखकर आगे बढ़ना पड़ता है, बाधाओं की शैल-श्रोणियों से टकराना पड़ता है; और पग-पग पर प्रतिकूल परिस्थितियों का सामना करना पड़ता है जैसे कि पाठक को सीता, राजुल, मनोरमा, सुखानन्द आदि के चरित्र से अवगत कराया गया है ।
दूसरी ओर कुशील के समान कोई भ्रष्ट आचरण और चरित्र पर कोई दूसरा कलंक नहीं है । उससे यदि वह पुरुष है तो पुरुष जाति का और यदि वह नारी है तो नारी जाति का घोरतम अपमान होता है । उससे क्लेशकारक कर्मों का बन्धन होता है और इस लोक में अपमान और अपयश तथा परलोक में नरकादि का भागी बनना पड़ता है, जैसे 'यशोधर चरित' की अमृतमती। इसी प्रकार शील भंग करना तो दूर, उसके लिए प्रयास भर करने-कराने का अपराध जघन्य और अक्षम्य है; उसके परिणाम में उसका हृदय ग्लानि और पाश्चाताप से भर उठता है तथा कठोरतम दण्ड सहना पड़ता है, जैसे-'पार्श्वपुराण' में कमठ,' 'शीलकथा' में दूती,
१. (क) शीलकथा, पृष्ठ ७८ ।
(ख) श्रेणिक चरित, पद्य ४७३, पृष्ठ ३४ ।
(ग) राजुल पच्चीसी, पद्य १४, पृष्ठ ८ । २. राजा अति ही रिस कीनों। सिर मुड दंड बहु दीनों ॥
मुख के कालौंस लगाई । खर रोप्यो पीर न आई ॥
(क्रमशः)