Book Title: Jain Kaviyo ke Brajbhasha Prabandh Kavyo ka Adhyayan
Author(s): Lalchand Jain
Publisher: Bharti Pustak Mandir

View full book text
Previous | Next

Page 373
________________ ३८४ जैन कवियों के ब्रजभाषा-प्रबन्धकाव्यों का अध्ययन है । शुभ करूंगा, तो इस जीवन में सुख और यश मिलेगा और भावी जीवन में स्वर्ग-मोक्ष मिलेगा-ऐसी भावना भी मानव के चरित्रोत्कर्ष में सहायक बनती है। इसी प्रकार पार्श्वपुराण के तीर्थकर रूप में माता के गर्भ में आने, जन्म लेने, तप को जाने, केवलज्ञान होने और मोक्ष को जाने के समय जो इन्द्रादि की उपस्थिति धरती पर बतलायी गयी है और उनके द्वारा जो भक्तिस्तुति करायी गयी है, वह भी उनके चरित्र को आकर्षण का केन्द्र बनाकर वीतरागी के प्रति दिव्य अनुराग उत्पन्न करने, आराध्य की महत्ता और भक्त की लघुता को प्रतिपादित करने, स्मरण, दर्शन, स्तुति आदि द्वारा भक्ति-भावना को दृढ़ करने के लिए ही। कहने का अभिप्राय यह है कि 'पार्श्वपुराण' की भांति उक्त प्रबन्धों में आत्मभावों, जैसे-सत्य, अहिंसा, क्षमा, समता, सम्यक् दर्शन, सम्यक् ज्ञान, सम्यक् चारित्र्य तथा पुण्य के सुखात्मक और पाप के दुःखात्मक पक्ष आदि को उभार कर मानव को पाप से डरने, पुण्य-तप करने एवं शुद्ध-बुद्ध होने का सन्देश दिया गया है। उनमें मानव के हृदय में यह विश्वास भरने का उद्देश्य छिपा हुआ है कि 'मैं ही कर्ता हैं, मैं ही भोक्ता हूँ। मेरा स्वभाव स्वयं अनन्त सुख-ज्ञान-दर्शनमय है। मैं अपनी वस्तु को बाह्य पदार्थों में खोज रहा था। उनमें मेरी वस्तु कहाँ मिल सकती थी ? कितनी बड़ी भूल थी मेरी ! अब मैं देखता हूँ कि मेरी समस्त शाश्वत विभूति मेरे ही अन्दर विद्यमान है । आवश्यकता है केवल आत्माश्रित क्रिया के द्वारा उस विभूति को आवृत करने वाले कारणों के समूल उच्छेद की। ज्यों ही ये प्रतिबन्धक कारण दूर होंगे, मैं अपनी अनन्त विभूति का भोक्ता हो जाऊँगा। ____ सारांश यह है कि इन ग्रन्थों की रचना का लक्ष्य तीर्थंकरों के चरित्र के माध्यम से यह सिद्ध करना है कि प्रत्येक आत्मा धीरे-धीरे सामान्य अवस्था से चलकर तीर्थंकर के पद तक पहुँचकर आत्म-विकास की अन्तिम कोटि को पा सकती है। आचार पक्ष पर बल और नैतिक आदर्शों की प्रतिष्ठा 'सीता चरित', 'यशोधर चरित,' 'श्रेणिक चरित', 'शीलकथा', 'राजुल

Loading...

Page Navigation
1 ... 371 372 373 374 375 376 377 378 379 380 381 382 383 384 385 386 387 388 389 390