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जैन कवियों के ब्रजभाषा प्रबन्धकाव्यों का अध्ययन
पर पुण्य, अधर्म पर धर्म और असत्य पर सत्य की विजय का उद्घोष है । उनमें अनेक ऐसे प्रसंग आये हैं जहाँ हिंसा, क्रोध, बैर, विषयासक्ति, परिग्रह, लोभ, कुशील, दुराचार आदि में लिप्त मानव को एक या अनेक पर्यायों ( जन्मों) में घोरतम कष्ट सहते हुए बतलाया गया है और अन्तत: अहिंसा, अक्रोध, क्षमा, त्याग, अलोभ, अपरिग्रह, शील, संयम, चारित्र्य आदि की यता, पवित्रता और महत्ता सिद्धकर इहलोक और परलोक के साफल्य का उद्घाटन किया गया है । उनका लक्ष्य राग नहीं विराग है; भौतिक प्रेम नहीं आध्यात्मिक प्रेम है; भोग नहीं योग है; तप है, मोक्ष है । संक्षेप में, चतुर्वर्ग फलों में से धर्म और मोक्ष की प्राप्ति है; अर्थ और काम उपयुक्त दोनों फलों की उपलब्धि के साधन मात्र हैं ।
संक्ष ेप में लक्ष्य-संधान की दृष्टि से आलोच्य रचनाओं को कुछ वर्गों में रखकर उनके उद्देश्य की ओर इंगित किया जा सकता है :
(१) तीर्थंकरों का चरितगान और उनके उदात्त चरित्र से प्रेरणा |
(२) आचारपक्ष पर बल और नैतिक आदर्शों की प्रतिष्ठा ।
(३) दार्शनिक परिपार्श्व में शुद्धात्म-तत्त्व का संदेश |
(४) गुरु-भक्ति ।
(५) अनूदित काव्य : धर्म प्रचार एवं प्रसार ।
तीर्थंकरों का चरितगान और उनके उदात्त चरित्र से प्रेरणा
'पार्श्वपुराण', 'नेमिनाथ चरित', 'आदिनाथ बेलि', 'नेमिचन्द्रिका' ( आसकरण), 'नेमिचन्दिका' ( मनरंगलाल ), 'नेमीश्वररास', 'नेमिनाथ मंगल' प्रभृत्ति प्रबन्ध रचनाएँ ऐसी हैं, जिनका लक्ष्य तीर्थकर चरित्रों की पृष्ठभूमि में मानव को सांसारिक भोगेषणाओं से निर्लिप्त रखकर उत्तरोत्तर आत्म-विकास के सोपानों पर चढ़ते हुए मोक्ष प्राप्त करने के लिए प्रेरित करना है । इन प्रबन्धों के चरितनायक तीर्थंकर हैं । वे तत्त्वचिन्तन द्वारा