Book Title: Jain Kaviyo ke Brajbhasha Prabandh Kavyo ka Adhyayan
Author(s): Lalchand Jain
Publisher: Bharti Pustak Mandir

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Page 370
________________ लक्ष्य-संधान ३८१ अपितु इसलिए कि इन में संत-प्रवृत्ति प्रधान है। इन कृतियों में या तो 'तिरसठशलाका' पुरुषों का यशोगान है;या आत्मतत्त्व की उपलब्धि के लिए रूपकात्मक और प्रतीकात्मक रूप में दार्शनिक तथा आध्यात्मिक रहस्यों का उद्घाटन है; या अन्यान्य चरित्रों के परिप्रेक्ष्य में शील एवं आदर्शों की प्रतिष्ठापना है। लक्ष्य-संधान की दृष्टि से इन काव्यों की वैराग्योन्मुख प्रवृत्ति का मूल उद्देश्य तत्कालीन अव्यवस्था से क्षत-विक्षत सामन्तवाद के भग्नावशेष पर खड़े त्रस्त और पीड़ित मानव को स्फूर्ति और उत्साह प्रदान करके दिशान्तर में प्रेरित करना है, जीवन-पथ में आच्छादित अन्धकार और निराशा को दूर कर उसमें आशा का आलोक भरना तथा विलास जर्जर मानव में नैतिक बल का संचार करना है। इनमें स्थल-स्थल पर जो भक्ति की अनवरत गंगा बह रही है, वह भी इस भावना के साथ कि मानव अपने पापों का प्रक्षालन कर ले, अपनी आत्मा के कालुष्य को धो डाले और इनमें जो आदर्श चरित्रों का उत्कर्ष दिखलाया गया है, वह भी इसलिए कि उन जैसे गुणों को हृदय में उतार ले । इस प्रकार आलोच्य प्रबन्धकाव्यों में धर्म के दोनों पक्षों (आचार एवं विचार) पर प्रकाश डालते हुए मानव को यह बोध कराया गया है कि 'धर्म और चरित्र ही मानव जीवन में ऐसे सबल सहयोगी हैं जिनके बल पर जीवनभर मानव संकटों से भयभीत नहीं होता और मानवता की पराजय कभी भी स्वीकार नहीं करता। वस्तुतः सभी प्रबन्ध धार्मिक आस्था से किसी न किसी रूप में सम्पुटित रहे हैं । ___प्रायः पूरे प्रबन्धों में संघर्षात्मक परिस्थितियों का नियोजन और अन्त में आत्म-स्वातंत्र्य की पुकार है। उनके मध्य में अनेक लोकादर्श समाये हुए हैं । लोकमंगल की भावना उनमें स्थल-स्थल पर उभरी है। वहां पाप १. नेमिचन्द्र शास्त्री : हिन्दी जैन साहित्य परिशीलन । २. डॉ० रवीन्द्रकुमार : कविवर बनारसीदास (जीवनी और कृतित्व), पृ० ७६ ।

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