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३२४ जैन कवियों के ब्रजभाषा-प्रबन्धकाव्यों का अध्ययन मानवीकरण या मूर्तीकरण शैली कहलाती है। भैया भगवतीदास ने 'शतअष्टोत्तरी', 'चेतनकर्म चरित्र', 'पंचेन्द्रिय संवाद' काव्यों में इसी शैली का अंचल पकड़ा है। उक्त काव्यों में से प्रथम दो में चेतन (आत्मा) को राजा और सुबुद्धि एवं कुबुद्धि को उसकी रानियों का रूप दिया गया है । 'चेतन कर्मचरित्र' में ज्ञान, विवेक, दान, शील, तप, संयम, मोह, राग, द्वेष, काम, लोभ आदि को भी जीते-जागते, संघर्ष करते, लड़ते-गिरते रूप में प्रदर्शित किया गया है। इस प्रकार कवि की यह शैली आत्म-चेतना की शैली है । अरूप का रूप-विधान करने वाली यह शैली वस्तुतः बड़ी मार्मिक है । देखिये :
सुनिके सीख सुबुद्धि की, चेतन पकरी मौन । उठी कुबुद्धि रिसायके, इह कुलक्षयनी कौन ।। मैं बेटी हूँ मोह की, ब्याही चेतनराय । कही नारि यह कौन है, राखी कहां लुकाय ।। तब चेतन हंस यों कहै, अब तोसों नहिं नेह ।
मन लाग्यो या नारि सों अति सुबुद्धि गुण गेह ।' इसी प्रकार 'पंचेन्द्रिय संवाद' में नाक, कान, आँख, रसना, मन आदि को बोलती हुई अवस्था में चित्रित किया है। उनके शील-निरूपण में कवि की दृष्टि भौतिक सीमाओं को लांघकर आध्यात्मिक स्पन्दनों में रमी है।' आगे 'गीत शैली' देखिए । गीत शैली
कतिपय प्रबन्धों के प्रायः भावात्मक स्थलों पर गीत शैली व्यवहृत हुई है । कुछ प्रबन्ध तो प्रायः गीत शैली में ही रचित हैं। यथा--'राजुल
१. चेतन कर्म चरित्र, पद्य ९-११, पृष्ठ ५६ । २. मन इन्द्री संगति किये रे, जीव परै जग जोय ।
विषयन की इच्छा बढ़े रे, कैसें शिवपुर होय ॥प्राणी०॥ इन्द्रिन तें मन मारिये रे, जोरिये आतम माहिं । तोरिये नातो राग सों रे, फोरिये बल श्यों थाहिं ॥प्राणी०॥
--पंचेन्द्रिय संवाद, पद्य १३३-३४, पृष्ठ १५०-१५१ ।