Book Title: Jain Kaviyo ke Brajbhasha Prabandh Kavyo ka Adhyayan
Author(s): Lalchand Jain
Publisher: Bharti Pustak Mandir

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Page 367
________________ नैतिक, धार्मिक एवं दार्शनिक परिपावं ३७७ हो जाना।' यहाँ आत्मा अनन्त चतुष्टय हो जाता है, अर्थात् अनन्त ज्ञान, अनन्त दर्शन, अनन्त सुख आदि से युक्त ।। ____ मोक्ष की दशा में आत्मा पूर्ण स्वतन्त्र होकर अपनी अनुपम आभा से प्रभासित हो उठता है। यही आत्मा की सिद्ध और सर्वोच्च अवस्था है ।' यहाँ के सुख अनुपमेय हैं। यह अक्षय पद है, जहाँ अपना ही अपना रूप दिखायी देता है। यह चेतन के लिए शिव-सुख स्वरूप अविचल धाम है। यहाँ पहुंचकर वह अनन्तकाल तक ध्र व विश्राम करता है; जन्म-जरा-मरण के चक्र से सदैव के लिए छुटकारा पा जाता है । ___ यह पहले कह आये हैं कि मोक्ष के हेतु संवर और निर्जरा हैं । कर्मास्रव का निरोध और संचित कर्म-परमाणुओं की निर्जरा के बिना मोक्ष की उपलब्धि नहीं होती। संवर और निर्जरा, दोनों के लिए तत्त्वज्ञान आवश्यक है, इसके बिना मोक्ष नहीं मिलता। इसी से आत्मध्यान होता है जिससे कर्मों की निर्जरा होती है । सम्यक् दर्शन, सम्यक् ज्ञान और सम्यक् चारित्र्य से तत्त्वज्ञान होता है । ये ही मुक्ति-मार्ग के सोपान हैं। सारांश यह है कि अधिकांश आलोच्य प्रबन्धकाव्यों में आत्मा का स्थलस्थल पर विवेचन आया है। उनके प्रणेताओं का लक्ष्य भी आत्म-स्वातंत्र्य प्रतीत होता है। उन्होंने आत्मा की स्वतन्त्र सत्ता स्वीकार की है । पुद्गल परमाणुओं से आवृत आत्मा संसार दशा में आबद्ध रहता है (बंध)। और बंध के कारणों के अभाव से वह मुक्त हो जाता है (मोक्ष)। मोक्ष के लिए आव १. तत्वार्थ, सूत्र ८.५२ । १. डॉ. मोहन लाल मेहता : जैन दर्शन, पृष्ठ १५६ । १. शतअष्टोत्तरी, पद्य १२, पृष्ठ १०।। ४. जा छिन अपने सहज ही, चेतन करत किलोल । ताछिन आन न भास ही, आपहि आप अडोल ॥ -शतअष्टोत्तरी, पद्य ३७, पृष्ठ १६ । ५. चेतन कर्म चरित्र, पद्य २८४-८५, पृष्ठ ८३। १. मोक्ष नहीं बिन तत्त्व के पाये । -शतअष्टोत्तरी, पद्य ११, पृष्ठ १० ।

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