Book Title: Jain Kaviyo ke Brajbhasha Prabandh Kavyo ka Adhyayan
Author(s): Lalchand Jain
Publisher: Bharti Pustak Mandir

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Page 365
________________ नैतिक, धार्मिक एवं दार्शनिक परिपार्श्व ३७५ संवर के लिए मन, वाणी और कर्म की स्वछन्द प्रवृत्तियों पर नियंत्रण आवश्यक है । पंचेन्द्रियाँ जीव को सदैव पाप-कर्म में लिप्त रखती हैं। उनकी प्रीति से जीव घोर दुःख सहता है और लम्बे काल तक संसार में परिभ्रमण करता है । मन इन्दियों का राजा है। वह आठ प्रहर उन्हें कर्म के लिए प्रेरित करता रहता है। इन्द्रियों द्वारा मन की संगति से विषयों की इच्छा बढ़ती है, विषयासक्ति जीव की मुक्ति-प्राप्ति में बाधक है । अतः संवर के लिए रागादि से सम्बन्ध तोड़कर इन्द्रियों से मन मोड़कर आत्मा से प्रीति करनी चाहिए। ___ संवर के अन्य निमित्त हैं-हित-मित-प्रिय बचन बोलना, हिंसा का बहिष्कार करना, मार्दव, आर्जब, शौच (लोभादि का परित्याग); सत्य, संयम, तप, त्याग, आकिंचन, ब्रह्मचर्य आदि का पालन करना, पर-वस्तुओं को अपना शत्रु समझ कर उनकी अनित्यता का चिन्तन करना, लोक में जन्म, जरा और मरण की स्थिति का विचार करना, संसार के स्वरूप और उसके दुःखों का विचार करना, कर्मानव की प्रक्रिया को संसार बन्ध का कारण समझना, सम्यक् ज्ञानी बनकर तथा सम्यक् दृष्टि रखकर १. पंचेन्द्रिय संवाद, पद्य १३१, पृष्ठ २५०। २. प्राणी आतम धरम अनूप रे, जगमें प्रकट चिद्र प रे ॥ २५०-५१। .. यशोधर चरित, पद्य ६७ । ५. पार्श्वपुराण, पृष्ठ ६६ । ५. चेतन कर्म चरित्र, पद्य २३४-३५, पृष्ठ ७८ । शतअष्टोत्तरी, पद्य ३३, पृष्ठ १५ । क्रोधादिक जबही करै, बंध कर्म तब आन । परिग्रह के संयोग सौं, बंध निरंतर जान ।। बंध अभावै मुक्ति है, यह जानै सब लोय । बंध हेत बरतं जहां, मुक्ति कहाँ ते होय ।। -पार्श्वपुराण, पद्य १५३-५४, पृष्ठ १५६ ।

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