Book Title: Jain Kaviyo ke Brajbhasha Prabandh Kavyo ka Adhyayan
Author(s): Lalchand Jain
Publisher: Bharti Pustak Mandir

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Page 363
________________ नैतिक, धार्मिक एवं दार्शनिक परिपाव ३७३ विवेच्य कृतियों में विशेष उल्लेख नहीं मिलता । यहाँ संक्षेप में इतना ही कह देना अभीष्ट है कि धर्म-अधर्म का अर्थ पुण्य-पाप नहीं है। धर्म जीव और पुद्गल की गति में योग देने वाला द्रव्य है। यह उन्हें उसी प्रकार योग देता है, जैसे जल मछली को इच्छापूर्वक विहार करने के लिए सहारा देता है। जिस प्रकार धर्म द्रव्य जीव और पुद्गल की गति के लिए साधारण कारण है, उसी प्रकार जीव और पुद्गल की स्थिति के लिए अधर्म द्रव्य साधारण कारण है। जैसे मार्ग में चलते हुए पथिक को वृक्षों की छाया विराम देने का निमित्त है, वैसे ही अधर्म द्रव्य भी जीव और पुद्गल की स्थिति का निमित्त है। आकाश जीव, पुद्गल, धर्म, अधर्म और काल को अवगाह (स्थान) देता है। जीव, अजीव के साथ आस्रव तत्त्व भी चिन्तनीय है । आस्रव कर्मों के आगमन को आस्रव कहते हैं। आस्रव दो प्रकार का हैएक भावास्रव और दूसरा द्रव्यास्रव । आत्मा के जिन भावों द्वारा कर्मों का आस्रव होता है, वह भावास्रव है और कर्मपुद्गलों का आना द्रव्यास्रव है। इस प्रकार जब तक कर्मास्रव की धारा और बन्ध-परम्परा गतिशील रहती है, तब तक जीव का संसार-परिभ्रमण समाप्त नहीं होता है। आस्रव की स्थिति में मनुष्य को कान होते हुए सुनाई नहीं देता, नेत्र १. पार्श्वपुराण, पद्य ६७-६८, पृष्ठ १५० । द्रव्यसंग्रह, गाथा १७। पार्श्वपुराण, पद्य ११७, पृष्ठ १५२ । *. वही, पद्य १२८, पृष्ठ १५३ ।। (अ) तत्त्वार्थ राजवातिक, पृष्ठ ५०६, ज्ञानपीठ, काशी। (ब) जो कर्मन कर आगमन, आस्रव कहिये सोय । ताके भेद सिद्धांत में, भावित दरवित दोय ॥ -पावपुराण, पद्य १३१, पृष्ठ १५४ ।

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