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नैतिक, धार्मिक एवं दार्शनिक परिपार्श्व
जीव और कर्म - पुद्गल - दोनों में बन्ध की योग्यता है । इस योग्यता के कारण जीव और कर्म पुद्गलों का प्रति समय पर गुणाकार परिणमन होता है ।' अर्थात् जीव की प्रतिसमय की परिणति स्वतंत्र न होकर पुद्गल के निमित्त से होती है और पुद्गलों की परिणति भी स्वतन्त्र न होकर जीव के परिणामों के अनुरूप विविध प्रकार के कर्मरूप से होती है । जीव और पुद्गलों का यही बन्ध है, यही पारतंत्र्य है । प्रस्तुत बन्ध दशा में जीव पुद्गल के अधीन रहता है और पुद्गल जीव के अधीन ।
आलोच्च काव्यों में कहा गया है कि पुद्गल जीव के बन्धन का कारण है । कर्म - पुद्गलों के संयोग से ही समस्त संसारी जीवों की उत्पत्ति होती है । अचेतन होने पर भी पुद्गल परमाणु अपनी शक्ति से आत्मा को प्रभावित करते हैं । यों तो पुद्गल द्रव्य बहुत प्रकार के हैं, पर जो पुद्गल परमाणु आत्मा पर अपने प्रभाव का विस्तार करता है, उसे कर्म कहा जाता है ।" कर्म - पुद्गल जीव की शिवत्व - उपलब्धि में बाधक है ।
कर्म - पुद्गल आत्म-शत्रु है । आत्म बोध होने पर आत्मा जब दृष्टि पसार कर देखता है तो निज पर में भेद स्थापित कर लेता है और अनादिकाल से साथ में लगे कर्म - पुद्गलों से पृथक् होने का प्रयास करता
है ।
१. पंचाध्यायी, २।१३० ।
२.
३.
4.
राजकुमार साहित्याचार्य : अध्यात्म पदावली, पृष्ठ ४७ ।
जग में जीव अनादि, बंध संजोग तें । छूट्टो कबही नाहि, कर्मफल
भोग तें ॥
४. वही, पद्य ८५, पृष्ठ १४८ ।
हीरा कुमारी : 'जैन दर्शन: एक चिंतन, गुरुदेव श्री रत्नमुनिस्मृति ग्रन्थ, पृष्ठ १६७ ।
७.
३७१
- पार्श्वपुराण, पद्य ६१, पृष्ठ १४६ ।
५. इह विधये कर्म करत जोर । नाहि जान देत शिव वधू ओर ।
- चेतन कर्म चरित्र, पद्य ७६, पृष्ठ ८२ ।
देख हि दृष्टि पसारि के, निज पर सबको आदि ।
यह मेरे कौन हैं,
जड़ से लगे अनादि ॥
- शतअष्टोत्तरी, पद्य ५, पृष्ठ ५५ ।