Book Title: Jain Kaviyo ke Brajbhasha Prabandh Kavyo ka Adhyayan
Author(s): Lalchand Jain
Publisher: Bharti Pustak Mandir

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Page 359
________________ नैतिक, धार्मिक एवं दार्शनिक परिपार्श्व ३६६ आत्मा अपनी विशुद्ध स्वाभाविक दशा में पहुंचकर परमात्मा हो जाता है । आत्मा को बाँधने वाले कर्मों के आवरण से मुक्त होते ही वह संसारदशा से मुक्त होकर अपनी शाश्वत एवं सिद्धत्व अवस्था प्राप्त कर लेता है तथा विश्व का ज्ञाता और द्रष्टा हो जाता है। शिवस्वरूप आत्मा की यही स्थिति वरेण्य कही गयी है।' __ यह स्थिति तभी संभव है, जब मनुष्य परसंगति का परित्याग कर दे; राग, द्वेष, मोह, मिथ्यात् का परिहार कर दे । आत्मस्वरूप के विपरीत पर-प्रीति उसे नरक में ले जाने वाली है । अपने स्वभाव को भूल जाना ही उसके जगत्-परिभ्रमण का, अनेक योनियों में भटकने का कारण है। रत्नत्रय (सम्यक् दर्शन, सम्यक् ज्ञान, सम्यक् चारित्र) को अपनाने से तथा अपने मूल स्वरूप को पहचानने से मनुष्य को शुद्ध बुद्धत्व की प्राप्ति होती है। (ख) जीव की कर्तत्व और भोक्तृत्व की दृष्टि से कर्मकार से तुलना की जा सकती है। जैसे कर्मकार कार्य करता है और उसका फल भोगता है, वैसे ही जीव स्वयं कर्म करता है और उसका फल भोगता है। -मुनि नथमल : जैन और धर्म दर्शन, पृष्ठ २२६ । १. केवल प्रकाश होय, अंधकार नाश होय, ज्ञान को विलास होय और लौं निवाहवी । सिद्ध में सुवास होय, लोकालोक भास होय, आपु रिद्ध पास होय और की न चाहन्नी ।। -शतअष्टोत्तरी, पद्य ६१, पृष्ठ २८ । २. चेतन कर्म चरित्र, पद्य २८४-८७, पृष्ठ ८३ । ३. शतअष्टोत्तरी, पद्य ९८, पृष्ठ ३० । ४. ए हो चेतन राय परसों प्रीति कहा करी । जे नरकहि ले जाहि, तिनही सों राचे सदा ॥ -वही, पद्य ८२, पृष्ठ २६ । ५. भूलो आप आप न पायो । याही भूल जगत भरमायो । चौरासी लष में फिरयो ही। काल अनादि न जाणें क्यों ही ॥ -सीता चरित, पद्य २२१७, पृष्ठ १२७ ।

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