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नैतिक, धार्मिक एवं दार्शनिक परिपार्श्व ३६७ समाहार हो जाता है, जिनका विवेचन हम' धार्मिक भूमि' के परिपार्श्व में कर चुके हैं।
जीव
___ जीव तत्त्व का वर्गीकरण मुक्ति-प्राप्ति की योग्यता, वर्तमान स्थिति आदि के आधार पर किया गया है। मुक्ति के सम्बन्ध से जीव के दो भेद हैं-भव्य और अभव्य । जिस में सम्यग्दर्शन, सम्यग्ज्ञान और सम्यग्चारित्र द्वारा मुक्ति प्राप्त करने की योग्यता है वह भव्य जीव है और जिसमें इस प्रकार की योग्यता नहीं, वह अभव्य जीव है।
वर्तमान स्थिति के आधार से जीव के दो भेद हैं-संसारी और मुक्त। जो कर्मबद्ध है, एक गति में जन्म लेता है और मरता है, वह संसारी जीव है । जो कर्म शृंखला को काटकर मुक्त हो चुका है, अनन्त ज्ञान, अनन्त दर्शन, अनन्त वीर्य, अनन्त सुखादि गुणों से अलंकृत हो गया है, वह आवागमन रहित अर्थात् मुक्त जीव है ।
हमारे काव्यों में जीव तत्त्व का सर्वाधिक उल्लेख मिलता है । जीव अनेक गतियों में नाना संताप सहता रहता है, उसे एक पल भी सुख की अनुभूति नहीं होती। माँ के गर्भ से यह जीव उत्पन्न होता है, गर्भ में भी यह सदैव दु:ख से पीड़ित रहता है, कृमि आदि से पूर्ण उदर में उल्टे मुख से कभी नौ मास तक रहता है और कभी अधूरे समय में ही अपनी जीवनलीला समाप्त कर देता है। पाप के परिणामस्वरूप जीव को अधोगति मिलती है। कोई गर्भ में ही समाप्त हो जाता है, कोई बाल या तरुण होकर विनाश को प्राप्त होता है, कोई वृद्धावस्था के कष्ट सहता है, कोई
1. गोम्मटसार, जीवकाण्ड, गाथा ५५६ । २. स जाति की च्यार गति कही। देव नरक पसु मनष ज सही। तिह में दुष नाना परकार । सुख एक पल नाहि लगार ॥
-बंकचोर की कथा, पद्य २६१, पृष्ठ ३० । ... यशोधर चरित, पद्य १२५-२६ ।