Book Title: Jain Kaviyo ke Brajbhasha Prabandh Kavyo ka Adhyayan
Author(s): Lalchand Jain
Publisher: Bharti Pustak Mandir

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Page 360
________________ ३७० जैन कवियों के ब्रजभाषा-प्रबन्धकाव्यों का अध्ययन उसका देव और गुरु आत्मा ही है। आत्मा का 'केवलरूप' अतीव सुन्दर और चिदानंद-स्वरूप है । आत्मा अपनी सही स्थिति पर आते ही परमात्मापद पर प्रतिष्ठित हो जाता है। तब उसका न कोई सेवक है, न कोई स्वामी । वह स्वयं ही सेवक है और स्वयं ही स्वामी है।' सारांश यह है कि आलोच्य काव्यों में स्थल-स्थल पर जीव तत्त्व उभर कर आया है, कहीं किसी रूप में तो कहीं किसी रूप में । जीव के साथ ही अजीव तत्त्व भी उल्लेखनीय है । अजीव जीव तत्त्व चेतनायुक्त है और अजीव तत्त्व जड़ है। जिन द्रव्यों में चैतन्य नहीं पाया जाता, वे अजीव द्रव्य कहे जाते हैं। अजीव द्रव्य के पाँच भेद हैं-पुद्गल, धर्म, अधर्म, आकाश और काल । पुद्गल जो द्रव्य पूरण (वृद्धि) और गलन द्वारा विविध प्रकार से परिवर्तित होता रहता है, वह पुद्गल है। शरीर पौद्गलिक है और पुद्गल रूप रस, गन्ध और स्पर्श से युक्त है। समस्त दृश्य जगत् इस पुद्गल का ही विस्तार है। हम जो कुछ खाते हैं, पीते हैं, छूते हैं सूघते हैं, वे सब पुद्गल की पर्याय हैं । इन्द्रियां, शरीर, मन, इन्द्रियों के विषय और श्वासोच्छ्वास आदि सब कुछ पुद्गल द्रव्य के ही विविध परिणमन हैं। संसारी जीव का पुद्गल से अभिन्न सम्बन्ध है । १. शतअष्टोत्तरी, पद्य ३६, पृष्ठ १६ । १. चेतन जीव अजीव जड़, यह सामान्य स्वरूप । -पावपुराण, पद्य २५, पृष्ठ १४१ । प. पं० कैलाशचन्द्र शास्त्री : जैन धर्म, पृष्ठ ६२ । ४. तत्त्वार्थराजवातिक, ५॥१॥२४ । ५. तत्त्वार्थसूत्र, ५९ ।

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