Book Title: Jain Kaviyo ke Brajbhasha Prabandh Kavyo ka Adhyayan
Author(s): Lalchand Jain
Publisher: Bharti Pustak Mandir

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Page 358
________________ ३६८ जैन कवियों के ब्रजभाषा प्रबन्धकाव्यों का अध्ययन पुण्योदय से यौवन का सुख भोगता है । इसी प्रकार कोई मूर्ख मोह मद में मस्त होकर दुर्गतियों में भटकता फिरता है, कोई रोगादि से पीड़ित होकर दुःख सहता है, कोई पुत्र - कलत्र के बीच घर में बन्दी बना रहता है । यह सब क्यों होता है ? जीव द्वारा परसंयोग और स्वस्वरूप को भूल जाने के कारण । यही उसके भव-भ्रमण और पग-पग पर असह्य वेदना सहन करने का कारण है । वह अपने अज्ञान के कारण कर्म निभित्त से वैभाविक परिणमन करके संसार बंध का सृजन करता है । जीव तत्त्व अमूर्तिक है । वह चेतनामय अरूपी सत्ता है ।" वह कर्त्ता है, भोक्ता है, शरीर प्रमाण है, ऊर्ध्वगामी है तथा उत्पाद, व्यय और श्रीव्ययुक्त है । वह एकांतत: वाणी द्वारा प्रतिपाद्य और तर्क द्वारा बोधगम्य नहीं है।' उसमें स्वभावतः ज्ञान, दर्शन, सुख, वीर्य आदि गुण विद्यमान हैं । अपने उत्थान-पतन के लिए जीव स्वयं उत्तरदायी है । अपने कर्मों से ही वह बंधनमुक्त होता है । अन्य न कोई उसे बाँधता है और न बंधन से मुक्त करता है । कमाये हुए कर्मों का फल वह निश्चित ही भोगता है । शुभाशुभ कर्मों के अनुसार ही उसे फल मिलता है ।" इसके लिए अन्य किसी को दोष देना व्यर्थ है, क्योंकि आत्मा ही कर्ता और भोक्ता है ।" १. २. ३. ४. शतअष्टोत्तरी, पद्य २२ पृष्ठ १३ । आचारांग सूत्र, ६।१।३३२ ॥ वही, ६।१।३३२ । वही, ६।१।३३० । 1 प्राणी जे करम कमावै, ताको फल निहचं पावै जो करम सुभासुभ होई, निच ते फल सोई । - यशोधर चरित, पद्य ११७ । (क) दोस न काहू दीजिये, करता और न होइ । इह करता इह भोगता, भुगता और न कोइ । - सीता चरित, पद्य १७, पृष्ठ ६ । क्रमशः

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