Book Title: Jain Kaviyo ke Brajbhasha Prabandh Kavyo ka Adhyayan
Author(s): Lalchand Jain
Publisher: Bharti Pustak Mandir

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Page 356
________________ ३६६ जैन कवियों के ब्रजभाषा-प्रबन्धकाव्यों का अध्ययन है, अगणित कष्टों का आलिंगन । उन कष्टों की कल्पनामात्र साधारण जन को सिहरन के लिए विवश कर देती है। उपर्युक्त धर्म विषयक विवेचन का सार यह है कि आलोच्य कवि धर्मभावना से अनुप्राणित रहे हैं। उन्होंने धर्म को लौकिक एवं पारलौकिक सफलता का विधायक तत्त्व स्वीकार करते हुए उसे भावना और क्रिया दोनों रूपों में रूपायित किया है । धार्मिक क्षेत्र में वे परम्परा से अधिक प्रभावित रहे दिखायी देते हैं। ३. दर्शन प्रबन्धकाव्यों के धार्मिक पक्ष के साथ ही उनका दार्शनिक पक्ष भी विचारणीय है । अधिकांश आलोच्य प्रबन्धकाव्यों की भित्ति जैन दर्शन पर आधृत है । 'पार्श्वपुराण', 'सीता चरित,' 'यशोधर चरित, 'शतअष्टोत्तरी, 'पंचेन्द्रिय संवाद, 'सूआ बत्तीसी', 'चेतन कर्म चरित्र', 'यशोधर चरित' प्रभृति रचनाओं में तो प्रत्यक्षत: जीव, अजीव आस्रव, बंध, संवर, निर्जरा, मोक्ष, पुण्य, पाप आदि दार्शनिक तत्त्वों का विवेचन मिलता है। शेष रचनाओं में दार्शनिक तत्त्वों का प्राचुर्य नहीं है, उनमें परोक्षतः तत्त्वचिन्तन का भाव झलकता है। जैन मान्यता में प्रमुख तत्त्व माने गये हैं :२ (१) जीव, (२) अजीव, (३) आस्रव, (४) बन्ध, (५) संवर, (६) निर्जरा और (७) मोक्ष । कुछ आचार्य पुण्य और पाप इन दोनों का पृथक् अस्तित्व स्वीकार करते हैं। हमारी दृष्टि से उपर्युक्त सात तत्त्वों के अन्तर्गत ही पुण्य-पाप का १. श्रेणिक चरित्र, पृष्ठ ६६ । २. 'जीवाजीवास्त्रवबन्धसंवरनिर्जरामोक्षास्तत्त्वम्' -तत्त्वार्थ सूत्र, ११४ ३. सर्वार्थसिद्धि, पृष्ठ ७, सोलापुर, सन् १९३६ ई० ।

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