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जैन कवियों के ब्रजभाषा प्रबन्धकाव्यों का अध्ययन
प्रबन्धकाव्यों में देव- पूजा के अनेकानेक स्थल हैं, जहाँ श्रावकों के अंतस से उमड़ती हुई भक्ति सलिला को देखा जा सकता है ।
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देव पूजा से, उसकी अर्चा-चर्चा से भक्त में दिव्य अनुराग-भाव उत्पन्न होता है; आराध्य की महत्ता और स्वयं की लघुता का भान होता है और उसके गुणों के स्मरण-कीर्तन से वह आराध्य के गुणों को धारण करता है । यद्यपि यह बाह्याचार ही है किन्तु इसे अनुपयोगी नहीं ठहराया जा सकता है ।' नीचे दिये गये अवतरण में श्रावक की देव पूजा द्रष्टव्य है
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आवत देखत अति हरषै चित महिमा कही न जाइ ।
द्वादस सभा मधि भगवंत तहाँ तीन प्रदक्षिना दे राइ || श्री० ॥ चित निरमल घरि प्रणमे जिन पद अधिक भगति उर धार । अष्ट दरब सुभ सेथी पूजा भूपत करें अधिकार ॥ श्री० ॥
श्रावक की अपेक्षा साधु के कर्मकाण्ड का क्षेत्र विस्तृत है । गृहस्थ एक देश चारित्र को ग्रहण करता है और मुनि सकल चारित्र को । सकल चारित्र के अन्तर्गत मुनि के २८ मूल-गुण स्वीकार किये गये हैं :
श्रीष कुंकुम कपूर सुगंध मिलि पूजे श्री जिनराइ । संसार भ्रमन आताप नासन करें कारण नृप मन भाइ || श्री० ॥ तंदुल उजल अखंड सुगंध सुभ अक्षत पूज कराइ | अक्षय पद प्रापत के कारण भूषत जी पूजै भाइ ॥ श्री० ॥
२.
(क) जैनाचार्या ने 'राग' को बन्ध का कारण कहा है, किन्तु वीतरागी में किया गया 'राग' मोक्ष का हेतु है ।
- डॉ० प्रेम सागर : हिन्दी जैन भक्तिकाव्य और कवि, पृष्ठ २ ।
कहा, किन्तु उस राग को
(ख) आचार्य पूज्यपाद ने 'राग' को भक्ति जो अर्हन्त, आचार्य, बहुश्रुत और प्रवचन में
शुद्ध भाव से किया जाये ।
- आचार्य पूज्यपाद, सर्वार्थसिद्धि, ६।२४ का भाष्य ।
पार्श्वपुराण, पद्य २०-२१, पृष्ठ ५१।
३. श्रेणिक चरित, पद्य १२०६, १०, ११, १३, पृष्ठ ८१-८२ ।