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________________ जैन कवियों के ब्रजभाषा प्रबन्धकाव्यों का अध्ययन प्रबन्धकाव्यों में देव- पूजा के अनेकानेक स्थल हैं, जहाँ श्रावकों के अंतस से उमड़ती हुई भक्ति सलिला को देखा जा सकता है । ३६४ देव पूजा से, उसकी अर्चा-चर्चा से भक्त में दिव्य अनुराग-भाव उत्पन्न होता है; आराध्य की महत्ता और स्वयं की लघुता का भान होता है और उसके गुणों के स्मरण-कीर्तन से वह आराध्य के गुणों को धारण करता है । यद्यपि यह बाह्याचार ही है किन्तु इसे अनुपयोगी नहीं ठहराया जा सकता है ।' नीचे दिये गये अवतरण में श्रावक की देव पूजा द्रष्टव्य है 2. आवत देखत अति हरषै चित महिमा कही न जाइ । द्वादस सभा मधि भगवंत तहाँ तीन प्रदक्षिना दे राइ || श्री० ॥ चित निरमल घरि प्रणमे जिन पद अधिक भगति उर धार । अष्ट दरब सुभ सेथी पूजा भूपत करें अधिकार ॥ श्री० ॥ श्रावक की अपेक्षा साधु के कर्मकाण्ड का क्षेत्र विस्तृत है । गृहस्थ एक देश चारित्र को ग्रहण करता है और मुनि सकल चारित्र को । सकल चारित्र के अन्तर्गत मुनि के २८ मूल-गुण स्वीकार किये गये हैं : श्रीष कुंकुम कपूर सुगंध मिलि पूजे श्री जिनराइ । संसार भ्रमन आताप नासन करें कारण नृप मन भाइ || श्री० ॥ तंदुल उजल अखंड सुगंध सुभ अक्षत पूज कराइ | अक्षय पद प्रापत के कारण भूषत जी पूजै भाइ ॥ श्री० ॥ २. (क) जैनाचार्या ने 'राग' को बन्ध का कारण कहा है, किन्तु वीतरागी में किया गया 'राग' मोक्ष का हेतु है । - डॉ० प्रेम सागर : हिन्दी जैन भक्तिकाव्य और कवि, पृष्ठ २ । कहा, किन्तु उस राग को (ख) आचार्य पूज्यपाद ने 'राग' को भक्ति जो अर्हन्त, आचार्य, बहुश्रुत और प्रवचन में शुद्ध भाव से किया जाये । - आचार्य पूज्यपाद, सर्वार्थसिद्धि, ६।२४ का भाष्य । पार्श्वपुराण, पद्य २०-२१, पृष्ठ ५१। ३. श्रेणिक चरित, पद्य १२०६, १०, ११, १३, पृष्ठ ८१-८२ ।
SR No.010270
Book TitleJain Kaviyo ke Brajbhasha Prabandh Kavyo ka Adhyayan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorLalchand Jain
PublisherBharti Pustak Mandir
Publication Year1976
Total Pages390
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size23 MB
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