Book Title: Jain Kaviyo ke Brajbhasha Prabandh Kavyo ka Adhyayan
Author(s): Lalchand Jain
Publisher: Bharti Pustak Mandir

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Page 353
________________ नैतिक, धार्मिक एवं दार्शनिक परिपार्श्व श्रावक के कर्मकाण्ड पर विस्तार से प्रकाश डालने की आवश्यकता नहीं है क्योंकि वह हमारा अध्ययनीय विषय नहीं है । संक्षेप में यही कहा जा सकता है कि श्रावक धर्म के दस लक्षणों (क्षमा, मार्दव, आर्जव, सत्य, शौच, संयम, तप, दान, आकिंचन, शील) का पालन करे क्योंकि इनके पालन से उसमें मानवीय गुणों का विकास होता है । वह सप्त व्यसनों जूआ, मद्य, मांस, वेश्यागमन, शिकार, चोरी, पर- स्त्री सेवन) का त्याग करे क्योंकि इन व्यसनों में रत मनुष्य पग-पग पर जय के स्थान पर पराजय का अनुभव करता है और मानव धर्म से च्युत होकर अनेक कष्टों का शिकार बनता है।' इसी प्रकार अष्टमूल गुणों में से प्रथम सात का आचरण करने से हिंसात्मक कर्मों से मुक्ति मिलती है और देव-दर्शन से हृदय में कोमल वृत्तियों का संचार होकर पवित्र चारित्र की प्रेरणा संबल पाती है, जिससे आत्मा कर परमात्मा जैसे गुणों को धारण कर परमात्मा जैसा बनने का यत्न करता है । श्रावक के लिए जिन षट्कर्मों का विधान बताया गया है, वह आचार-शुद्धि के लिए है । शास्त्रों के स्वाध्याय से भेद-बुद्धि और अज्ञानतिमिर विच्छिन्न होता है । संयम से इन्द्रियों पर विजय प्राप्त होकर तपपथ प्रशस्त होता है । तप ( सामायिक, व्रत, नियम) से आत्मा विशुद्ध अवस्था को प्राप्त होता है । * दान से औदार्य और त्याग की भावना दृढ़ होकर आत्मा को अपरिमित संतोष मिलता है । १. श्री गुरु सिच्छा साभलो, (ग्यानी ) सात व्यसन परित्यागो रे । ये जग में पातक बड़े ( ग्यानी) इन मारग मत लागो रे ॥ पार्श्वपुराण, पद्य १६०, पृष्ठ १५७। चेतन कर्म चरित्र, पद्य १८६, पृष्ठ ७३-७४ । औषधि अभय ग्यान अहार महादान यह चार प्रकार ॥ (क) श्रेणिक चरित, पृष्ठ ८२-८३ । (ख) बंकचोर की कथा, पद्य २३१-२४५, पृष्ठ २५-२८ । (ग) पार्श्वपुराण, पद्य २२-२३, पृष्ठ ५१ । R. ३६३ ३. ४. - पार्श्वपुराण, पद्य १५२, पृष्ठ. ६६ ।

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