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जैन कवियों के ब्रजभाषा-प्रबन्धकाव्यों का अध्ययन
__कर्मकाण्ड ही चारित्र है । चारित्र क्रियारूप है और वह दो प्रकार का होता है-सकल चारित्न तथा देश चारित्र । श्रावक (गृहस्थ) अपनी सीमाओं में जिस चारित्र को ग्रहण करता है, वह एक देश चारित्र है और साधु जिस चारित्र को पालता है, वह सकल चारित्र है।'
__श्रावक के लिए एक देश चारित्र का पालन आवश्यक है अर्थात् उसके लिए आवश्यक है कि वह अष्ट मूल गुणों को अपनाये, सप्त व्यसनों का त्याग करे और षट् कर्मों में रत रहे।"
सारांश यह है कि श्रावक सदाचारी हो; उसका आचरण मूलत: अहिंसात्मक हो। वह भाव सहित उन दुर्व्यसनों का परित्याग करे, जिनसे उसका हृदय कलुषित भावों से लदता है, जिनसे उसे लोक में अपयश मिलता है और जिनसे परलोक भी बिगड़ता है। अतः वह उन विशिष्ट गुणों से अपनी आत्मा को अलंकृत करे जिनसे पाप-बुद्धि का क्षय होकर, पर-पदार्थों से दृष्टि हटकर आत्म-विकास की भूमियों में पदार्पण कर सके ।
कतिपय प्रबन्धकाव्यों की भित्ति गृहस्थ के सदाचार पर ही आधृत है और उनमें स्थल-स्थल पर गृहस्थों के कर्मकाण्ड का विवेचन उपलब्ध होता है। कुछ प्रबन्धों में उसका नाममात्र को ही उल्लेख मिलता है ।
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पार्श्वपुराण, पद्य १४८, पृष्ठ १५५। १. वही, पद्य १४८-१४६, पृष्ठ १५५-५६ । ३. अष्ट मूल गुण-मांस, मद्य, मधु, पंच उदम्बर फल, रात्रिभोजन का
त्याग करना, जल छानकर पीना, जीवों पर दया करना आदि । सप्त व्यसन-बूतक्रीड़ा, मद्य, मांस, वेश्यागमन, शिकार, चोरी और पर-स्त्री-सेवन । षट् कर्म, स्वाध्याय, संयम, तप । पार्श्वपुराण, पद्य २७, पृष्ठ १८ । पार्श्वपुराण, बंकचोर की कथा, शील कथा, निशि भोजन कथा, श्रेणिक
चरित आदि। .. यशोधर चरित, नेमिनाथ मंगल, राजुल पच्चीसी आदि ।