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जैन कवियों के ब्रजभाषा प्रबन्धकाव्यों का अध्ययन
ध्यान वह आधारभूमि है, जिस पर ज्ञान का भव्य प्रासाद खड़ा है, जिसमें निवसित होने पर कर्म एवं मिथ्या का क्षय होकर ब्रह्मानन्द की स्वतः प्राप्ति हो जाती है । '
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मुक्ति-प्राप्ति के लिए ध्यान और ध्यान के लिए पर-पदार्थों से परि
अर्थात् भोग से निवृत्ति आवश्यक है । जिसने भोग से विरक्ति लेकर ध्यानाराधन किया है, वही मुक्ति-प्राप्ति का अधिकारी बना है ।' आगे योग- तप द्रष्टव्य है |
योग - तप-संयम
अध्ययनीय प्रबन्धकाव्यों में प्रायः योग शब्द भोग के विपरीतार्थ रूप में प्रयुक्त हुआ है और इसे भोग से श्रेयस्कर माना है ।" भोग भुजंग-सम है और भोग सुधासम । तत्त्वज्ञान की बात यही है कि योग से मृत्यु भय खाती है और भोग से वह दूनी लपटती है । भोग-रत प्राणी फिर-फिर कर संसार में प्रवेश करता है । जिसने ज्ञान द्वारा भोग का त्याग कर दिया
है, उसके घर मुक्ति के बाजे बजते हैं ।
प्रबन्धकारों ने योग और तप में पार्थक्य स्वीकार नहीं किया । उनकी असत्य है, सत्य है तो केवल
दृष्टि में योग ही तप है । संसार में और सब तप ही । तप से ही प्राणी की मुक्ति संभव है । को सहन करते हुए संचित कर्मों का क्षय करने से
तप द्वारा बाईस परीषहों ही शिवराज मिलता है | "
संयम तपस्या का प्रथम सोपान है । यद्यपि संयम धारण करना अति कठिन है किन्तु तपश्चर्या पथ में संयम का अनुपालन न होना समुद्र में डूब
शतअष्टोत्तरी, पद्य १४, पृष्ठ २६ ।
२. नेमिचन्द्रिका (आसकरण ), पृष्ठ २५ ।
नेमिचन्द्रिका (आसकरण), पृष्ठ २४ ।
३.
४. वही, पृष्ठ २५ ।
4.
राजुल पच्चीसी, पद्य १७ १८, पृष्ठ १० ।